शरद पूर्णिमा-शरद ऋतु का पर्व
प्रो.शरद नारायण खरे
शुभ्र ज्योत्सना खेलती,पुलकित होती रात।
रास रचायें कृष्ण तब,हो अमरत बरसात।।
(13 अक्टूबर पर विशेष) शरद पूर्णिमा, जिसे कोजागरी पूर्णिमा या रास पूर्णिमा भी कहते हैं; हिन्दू पंचांग के अनुसार आश्विन मास की पूर्णिमा को कहते हैं। ज्योतिष के अनुसार, पूरे साल में केवल इसी दिन चन्द्रमा सोलह कलाओं से परिपूर्ण होता है।हिन्दू धर्म में इस दिन कोजागर व्रत माना गया है। इसी को कौमुदी व्रत भी कहते हैं। इसी दिन श्रीकृष्ण ने महारास रचाया था। मान्यता है इस रात्रि को चन्द्रमा की किरणों से अमृत झड़ता है। तभी इस दिन उत्तर भारत में खीर बनाकर रात भर चाँदनी में रखने का विधान है।
एक साहुकार के दो पुत्रियाँ थी।दोनो पुत्रियाँ पुर्णिमा का व्रत रखती थी। परन्तु बडी पुत्री पूरा व्रत करती थी और छोटी पुत्री अधुरा व्रत करती थी। परिणाम यह हुआ कि छोटी पुत्री की सन्तान पैदा ही मर जाती थी। उसने पंडितो से इसका कारण पूछा तो उन्होने बताया की तुम पूर्णिमा का अधूरा व्रत करती थी जिसके कारण तुम्हारी सन्तान पैदा होते ही मर जाती है। पूर्णिमा का पुरा विधिपुर्वक करने से तुम्हारी सन्तान जीवित रह सकती है।
उसने पंडितों की सलाह पर पूर्णिमा का पूरा व्रत विधिपूर्वक किया। उसके लडका हुआ परन्तु शीघ्र ही मर गया। उसने लडके को पीढे पर लिटाकर ऊपर से पकडा ढक दिया। फिर बडी बहन को बुलाकर लाई और बैठने के लिए वही पीढा दे दिया। बडी बहन जब पीढे पर बैठने लगी जो उसका घाघरा बच्चे का छू गया। बच्चा घाघरा छुते ही रोने लगा। बडी बहन बोली-” तु मुझे कंलक लगाना चाहती थी। मेरे बैठने से यह मर जाता।“ तब छोटी बहन बोली, ” यह तो पहले से मरा हुआ था। तेरे ही भाग्य से यह जीवित हो गया है। तेरे पुण्य से ही यह जीवित हुआ है। “उसके बाद नगर में उसने पुर्णिमा का पूरा व्रत करने का ढिंढोरा पिटवा दिया था।”
इस दिन मनुष्य विधिपूर्वक स्नान करके उपवास रखे और जितेन्द्रिय भाव से रहे।धनवान व्यक्ति ताँबे अथवा मिट्टी के कलश पर वस्त्र से ढँकी हुई स्वर्णमयी लक्ष्मी की प्रतिमा को स्थापित करके भिन्न-भिन्न उपचारों से उनकी पूजा करें, तदनंतर सायंकाल में चन्द्रोदय होने पर सोने, चाँदी अथवा मिट्टी के घी से भरे हुए १०० दीपक जलाए। इसके बाद घी मिश्रित खीर तैयार करे और बहुत-से पात्रों में डालकर उसे चन्द्रमा की चाँदनी में रखें। जब एक प्रहर (३ घंटे) बीत जाएँ, तब लक्ष्मीजी को सारी खीर अर्पण करें। तत्पश्चात भक्तिपूर्वक सात्विक ब्राह्मणों को इस प्रसाद रूपी खीर का भोजन कराएँ और उनके साथ ही मांगलिक गीत गाकर तथा मंगलमय कार्य करते हुए रात्रि जागरण करें। तदनंतर अरुणोदय काल में स्नान करके लक्ष्मीजी की वह स्वर्णमयी प्रतिमा आचार्य को अर्पित करें। इस रात्रि की मध्यरात्रि में देवी महालक्ष्मी अपने कर-कमलों में वर और अभय लिए संसार में विचरती हैं और मन ही मन संकल्प करती हैं कि इस समय भूतल पर कौन जाग रहा है? जागकर मेरी पूजा में लगे हुए उस मनुष्य को मैं आज धन दूँगी।
इस प्रकार प्रतिवर्ष किया जाने वाला यह कोजागर व्रत लक्ष्मीजी को संतुष्ट करने वाला है। इससे प्रसन्न हुईं माँ लक्ष्मी इस लोक में तो समृद्धि देती ही हैं और शरीर का अंत होने पर परलोक में भी सद्गति प्रदान करती हैं।
“शीतल बिखरी चाँदनी,जिसका मोहक रूप।
अमरत पाकर दोस्तो,बन जाओ तुम भूप।।”
रक्षा बंधन-अटूट रिश्ता है
जया शर्मा
(15 अगस्त : रक्षाबंधन पर विशेष) भाई-बहन के प्रगाढ़ स्नेह को दर्शाने वाला रक्षा-बंधन पर्व आज भी हमारे देश में धूम धाम से मनाया जाता है। आधुनिकता अपने पैर-पसारती जा रही है फिर भी हम अपनी सभ्यता और संस्कृति को भूलेंगे नहीं। राखी का त्यौहार पूरे देश में हर जाति और धर्म के लोगों द्वारा मनाया जाता हैं। श्रावण मास की पूर्णिमा को यह पर्व मनाया जाता है। दिये की ज्योति को साक्षी मानकर बहनें अपने भाईयों को रक्षा सूत्र बांधती हैं तथा उनके दीर्घ और खुशहाल जीवन की कामना करती हैं। तभी भाई भी अपनी बहन की रक्षा का प्रण लेते हैं। व्यस्तता और महँगाई के भीषण दौर में पर्वों के साथ ही रिश्तों का मूल्य घटता जा रहा हैं राखी का त्यौहार उन बंधनों की याद दिलाता है जो पूर्णत: स्वच्छ और नि:स्वार्थ हैं। बहनों को आशा है अपने भाईयों से प्रेम और स्नेह की। भाईयों को अपने कर्त्तव्य पालन में पीछे नहीं हटना चाहिए।
‘‘येन बद्धो, बलि राजा दान विन्द्राs महाबलम।
तेन-त्वाम अनुबन्धामी, रक्षे मां चला मां चलम।।’’
अर्थात मैं यह रक्षा सूत्र बांध रही हूं, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार लक्ष्मी जी ने असुरराज बलि को बांधा था और अपनी रक्षा करने का वचन लिया था। इसी समय से रक्षा सूत्र बांधने का नियम बना जिसे आज भी बहन अपने भाई को कलाई पर बांधकर परंपरा को निर्वाहकर रही है। कथा इस प्रकार है कि प्रहलाद का पुत्र और हिरण्यकश्यप का पौत्र बलि महान पराप्रमी था। उसने सभी लोकों पर विजय प्राप्त कर ली। इससे देवता घबरा गए और विष्णु जी की शरण में गएं विष्णु जी ने बटुक ब्राह्मण का रूप धारण किया और बलि के द्वार की ओर चले। असुरराज बलि विष्णु जी के अनन्य भव्त थे तथा शुप्राचार्य के शिष्य थे। जब बटुक स्वरूप विष्णु वहां पहुंचे तो बलि एक अनुष्ठान कर रहे थे। जैसे कि हे ब्राह्मण मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं। बटुक ने कहा मुझे तीन पग भूमि चाहिए। महाराज बलि ने जल लेकर संकल्प किया और ‘तीन पग’ भूमि देने को तैयार हो गए। तभी बटुक स्वरूप विष्णु अपने असली रूप में प्रकट हुए। उन्होंने दो पग में सारा ब्रह्मांड नाप लिया तथा तीसरा पग रखने के लिए कुछ स्थान न बचा। तभी बलि ने अपने सिर आगे कर दिया। इस प्रकार असुर को विष्णु जी ने जीत लिया और उस पर प्रसन्न हो गये। उसे पाताल में नागलोक भेज दिया। विष्णु जी बोले मैं तुम से प्रसन्न हूं मांगों क्या मांगते हो?s तब बलि ने कहा कि जब तक मैं नागलोक में रहूंगा आप मेरे द्वारपाल रहें। विष्णु जी मान गए और उसके द्वारपाल बन गए। कुछ दिन बीते लक्ष्मी जी ने विष्णु जी को ढूंढ़ना आरंभ किया तो ज्ञात हुआ कि प्रभु तो बलि के द्वारपाल बने हैं। उन्हें एक युक्ति सूझी। श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन उन्होंने बलि की कलाई पर एक पवित्र धागा बांधकर उसे भाई बना लिया। बलि ने भी उन्हें बहन मानते हुए कहा कि बहन मैं सदैव तुम्हारे भाई के लिए काम करूंगा। इस पवित्र बंधन से बहुत प्रभावित हुआ और बोला मैं तुम्हें एक वरदान देना चाहता हूं बहन! मांगो? लक्ष्मी जी को अपना उद्देश्यपूर्ण करना था, उन्होंने बताया जो तुम्हारे द्वारपाल है, वे मेरे पति हैं, उन्हें अपने घर जाने की आज्ञा दो। लक्ष्मी जी ने यह कहा कि ये ही भगवान विष्णु हैं। बलि को जब यह पता चला तो उसने तुरन्त भगवान विष्णु को उनके निवास की और रवाना किया। तभी से इस ‘रक्षा-बंधन’ की परंपरा को पवित्र पर्व के रूप में मनाते है।
राखी के बारे में एक और कथा प्रचलित है। यह महाभारत के समय की है। पांडवों और कौरवों में पारिवारिक विरोधाभास के कारण संबंधों में कटुता आ गई थी। पांडवों को नीचा दिखाने के लिए कौरवों ने उन्हें जुआ खेलने के लिए बुलाया। जुए में जब पांडव सब कुछ हार गए तो दुष्ट दुशासन ने द्रौपदी को भरी सभा में अपमानित करना चाहा। उससे द्रौपदी की साड़ी खींचना शुरू कर दिया तो द्रौपदी ने गुहार लगाई और श्री कृष्ण प्रकट हो गए। उन्होंने चीर बढ़ाकर द्रौपदी की रक्षा की। तभी से उन्होंने कृष्ण को भाई मान लिया। इसी दौरान एक बार पांडवों और कौरवों की सभा चल रही थी। कृष्ण को इस सभा का मुख्य अतिथि बनाया गया था। शिशुपाल की धृष्टता दिनों दिन बढ़ती जा रही थी। वह जब-तब कृष्ण का अपमान करता रहता। वह कृष्ण का अपमान करता रहा। वह कृष्ण का मौसेरा भाई था, सो कृष्ण ने कहा कि तेरी 99 गलतियाँ माफ है जैसे ही तू, 100 वीं गलती करेगा मैं तुझे मार दूंगा। लेकिन उस दुष्ट की बुद्धि नष्ट हो गई थी। उसने भरी सभा में कृष्ण को ग्वाला और अहीर कहकर अपमानित किया। कृष्ण ने प्रोधित होकर चप्र से उसका गला काट दिया। चप्र के चलने से कृष्ण की ऊंगली घायल हो गई। द्रौपदी ने फौरन अपनी साड़ी चीरकर कृष्ण की ऊंगली बांध दी। इस प्रकार भाई-बहन के स्नेह की परंपरा को बाधे रखा।
भारत का इतिहास उठाकर देखें तो राखी से संबंधित अनेक कथाएं और प्रसंग मिलेंगे। इसके अनुसार जब सिकन्दर और पौरूष में युद्ध ठनी तो सिकन्दर की पत्नि पुरू के पौरूष को देख व्यथित हो गई और उसने पुरू को अपना भाई बनाया। पुरू ने अपनी कलाई पर बंधी राखी का मान रखा और सिकन्दर की सुरक्षा का वचन दिया। मुस्लिम शासन के दौरान राजपूतों और रक्षाबंधन की एक कथा बड़ी प्रचलित है। चित्तौड़ की महारानी कर्णवती ने मुगल सम्राट हुमायूं को राखी भेजकर अपनी सुरक्षा का वचन लिया था। समय के साथ राखी के द्वारा बांधे गये बंधन की पवित्रता केवल भाई-बहन के बीच ही नहीं रही। रक्षा सूत्र को एक सुरक्षा कवच माना जाने लगा। संबंधों की मिठास बनाए रखने और कटुता को मिटाने के लिए भी राखी के पवित्र धागे का प्रयोग किया गया। जब भारत में अंग्रेजी शासन को जड़ से मिटाने की तैयारी चल रही थी, देश के युवाओं और संगठनों ने ‘रक्षा-बंधन’ को अनोखा स्वरूप दिया। गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर जी ने इसे एक उत्सव का रूप दिया। उन्होंने संगठन के कार्यकर्ताओं को ‘रक्षाबंधन’ के दिन रक्षा सूत्र बांधकर देश की सुरक्षा के लिए ‘संकल्पबद्ध किया। राखी का शाब्दिक महत्व बहुत छोटा है। किन्तु उसका आंतरिक महत्व बहुत गहरा है। यह पर्व आज भी हमारे देश में भाईचारे और सद्भावना की रक्षा के उद्देश्य को चरितार्थ कर रहा है। आज भी हम इसे पूरी निष्ठा और हर्षोल्लास से मनाते हैं।
पुराणों का संक्षिप्त परिचय
शरद नारायण खरे
पुराणों में सबसे पुराना विष्णुपुराण ही प्रतीत होता है। उसमें सांप्रदायिक खींचतान और रागद्वेष नहीं है। पुराण के पाँचो लक्षण भी उसपर ठीक ठीक घटते हैं। उसमें सृष्टि की उत्पत्ति और लय, मन्वंतरों, भरतादि खंडों और सूर्यादि लोकों, वेदों की शाखाओं तथा वेदव्यास द्वारा उनके विभाग, सूर्य वंश, चंद्र वंश आदि का वर्णन है। कलि के राजाओं में मगध के मौर्य राजाओं तथा गुप्तवंश के राजाओं तक का उल्लेख है। श्रीकृष्ण की लीलाओं का भी वर्णन है पर बिलकुल उस रूप में नहीं जिस रूप में भागवत में है।
वायुपुराण के चार पाद है, जिनमें सृष्टि की उत्पत्ति, कल्पों ओर मन्वन्तरों, वैदिक ऋषियों की गाथाओं, दक्ष प्रजापति की कन्याओं से भिन्न भिन्न जीवोत्पति, सूर्यवंशी और चंद्रवंशी राजाओं की वंशावली तथा कलि के राजाओं का प्रायः विष्णुपुराण के अनुसार वर्णन है।
मत्स्यपुराण में मन्वंतरों और राजवंशावलियों के अतिरिक्त वर्णश्रम धर्म का बडे़ विस्तार के साथ वर्णन है और मत्सायवतार की पूरी कथा है। इसमें मय आदि असुरों के संहार, मातृलोक, पितृलोक, मूर्ति और मंदिर बनाने की विधि का वर्णन विशेष ढंग का है। श्रीमदभागवत का प्रचार सबसे अधिक है क्योंकि उसमें भक्ति के माहात्म्य और श्रीकृष्ण की लीलाओं का विस्तृत वर्णन है। नौ स्कंधों के भीतर तो जीवब्रह्म की एकता, भक्ति का महत्व, सृष्टिलीला, कपिलदेव का जन्म और अपनी माता के प्रति वैष्णव भावानुसार सांख्यशास्त्र का उपदेश, मन्वंतर और ऋषिवंशावली, अवतार जिसमें ऋषभदेव का भी प्रसंग है, ध्रुव, वेणु, पृथु, प्रह्लाद इत्यादि की कथा, समुद्रमथन आदि अनेक विषय हैं। पर सबसे बड़ा दशम स्कंध है जिसमें कृष्ण की लीला का विस्तार से वर्णन है। इसी स्कंध के आधार पर शृंगार और भक्तिरस से पूर्ण कृष्णचरित् संबंधी संस्कृत और भाषा के अनेक ग्रंथ बने हैं। एकादश स्कंध में यादवों के नाश और बारहवें में कलियुग के राचाओं के राजत्व का वर्णन है। भागवत की लेखनशैली अन्य पुराणों से भिन्न है। इसकी भाषा पांडित्यपूर्ण और साहित्य संबंधी चमत्कारों से भरी हुई है, इससे इसकी रचना कुछ पीछे की मानी जाती है।
अग्निपुराण एक विलक्षण पुराण है जिसमें राजवंशावलियों तथा संक्षिप्त कथाओं के अतिरिक्त धर्मशास्त्र, राजनीति, राजधर्म, प्रजाधर्म, आयुर्वेद, व्याकरण, रस, अलंकार, शस्त्र-विद्या आदि अनेक विषय हैं। इसमें तंत्रदीक्षा का भी विस्तृत प्रकरण है। कलि के राजाओं की वंशावली विक्रम तक आई है, अवतार प्रसंग भी है। इसी प्रकार और पुराणों में भी कथाएँ हैं।
विष्णुपुराण के अतिरिक्त और पुराण जो आजकल मिलते हैं उनके विषय में संदेह होता है कि वे असल पुराणों के न मिलने पर पीछे से न बनाए गए हों। कई एक पुराण तो मत-मतांतरों और संप्रदायों के राग-द्वेष से भरे हैं। कोई किसी देवता की प्रधानता स्थापित करता है, कोई किसी देवता की प्रधानता स्थापित करता है, कोई किसी की। ब्रह्मवैवर्त पुराण का जो परिचय मत्स्यपुराण में दिया गया है उसके अनुसार उसमें रथंतर कल्प और वराह अवतार की कथा होनी चाहिए पर जो ब्रह्मवैवर्त आजकल मिलता है उसमें यह कथा नहीं है। कृष्ण के वृंदावन के रास से जिन भक्तों की तृप्ति नहीं हुई थी उनके लिये गोलोक में सदा होनेवाले रास का उसमें वर्णन है। आजकल का यह ब्रह्मवैवर्त मुसलमानों के आने के कई सौ वर्ष पीछे का है क्योंकि इसमें ‘जुलाहा’ जाति की उत्पत्ति का भी उल्लेख है — म्लेच्छात् कुविंदकन्यायां जोला जातिर्बभूव ह (१०, १२१)। ब्रह्मपुराण में तीर्थों और उनके माहात्म्य का वर्णन बहुत अधिक हैं, अनंत वासुदेव और पुरुषोत्तम (जगन्नाथ) माहात्म्य तथा और बहुत से ऐसे तीर्थों के माहात्म्य लिखे गए हैं जो प्राचीन नहीं कहे जा सकते। ‘पुरुषोत्तमप्रासाद’ से अवश्य जगन्नाथ जी के विशाल मंदिर की ओर ही इशारा है जिसे गांगेय वंश के राजा चोड़गंगा (सन् १०७७ ई०) ने बनवाया था। मत्स्यपुराण में दिए हुए लक्षण आजकल के पद्मपुराण में भी पूरे नहीं मिलते हैं। वैष्णव सांप्रदायिकों के द्वेष की इसमें बहुत सी बातें हैं। जैसे, पाषडिलक्षण, मायावादनिंदा, तामसशास्त्र, पुराणवर्णनइत्यादि। वैशेषिक, न्याय, सांख्य और चार्वाक ‘तामस शास्त्र’ कहे गए हैं और यह भी बताया गया है। इसी प्रकार मत्स्य, कूर्म, लिंग, शिव, स्कंद और अग्नि तामस पुराण कहे गए हैं। सारंश यह कि अधिकांश पुराणों का वर्तमान रूप हजार वर्ष के भीतर का है। सबके सब पुराण सांप्रदायिक है, इसमें भी कोई संदेह नहीं है। कई पुराण (जैसे, विष्णु) बहुत कुछ अपने प्राचीन रूप में मिलते हैं पर उनमें भी सांप्रदायिकों ने बहुत सी बातें बढ़ा दी हैं।
“जगन्नाथ का भात-जगत पसारे हाथ”
प्रो.शरद नारायण खरे
(भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा 4 जुलाई पर विशेष) पूर्व भारतीय उड़ीसा राज्य का पुरी क्षेत्र जिसे पुरुषोत्तम पुरी, शंख क्षेत्र, श्रीक्षेत्र के नाम से भी जाना जाता है, भगवान श्री जगन्नाथ जी की मुख्य लीला-भूमि है। उत्कल प्रदेश के प्रधान देवता श्री जगन्नाथ जी ही माने जाते हैं। यहाँ के वैष्णव धर्म की मान्यता है कि राधा और श्रीकृष्ण की युगल मूर्ति के प्रतीक स्वयं श्री जगन्नाथ जी हैं। इसी प्रतीक के रूप श्री जगन्नाथ से सम्पूर्ण जगत का उद्भव हुआ है। श्री जगन्नाथ जी पूर्ण परात्पर भगवान है और श्रीकृष्ण उनकी कला का एक रूप है। ऐसी मान्यता श्री चैतन्य महाप्रभु के शिष्य पंच सखाओं की है।
पूर्ण परात्पर भगवान श्री जगन्नाथ जी की रथयात्रा आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को जगन्नाथपुरी में आरम्भ होती है। यह रथयात्रा पुरी का प्रधान पर्व भी है। इसमें भाग लेने के लिए, इसके दर्शन लाभ के लिए हज़ारों, लाखों की संख्या में बाल, वृद्ध, युवा, नारी देश के सुदूर प्रांतों से आते हैं।
पर्यटन और धार्मिक महत्त्व —
यहाँ की मूर्ति, स्थापत्य कला और समुद्र का मनोरम किनारा पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए पर्याप्त है। कोणार्क का अद्भुत सूर्य मन्दिर, भगवान बुद्ध की अनुपम मूर्तियों से सजा धौल-गिरि और उदय-गिरि की गुफाएँ, जैन मुनियों की तपस्थली खंड-गिरि की गुफाएँ, लिंग-राज, साक्षी गोपाल और भगवान जगन्नाथ के मन्दिर दर्शनीय है। पुरी और चन्द्रभागा का मनोरम समुद्री किनारा, चन्दन तालाब, जनकपुर और नन्दनकानन अभ्यारण् बड़ा ही मनोरम और दर्शनीय है। शास्त्रों और पुराणों में भी रथ-यात्रा की महत्ता को स्वीकार किया गया है। स्कन्द पुराण में स्पष्ट कहा गया है कि रथ-यात्रा में जो व्यक्ति श्री जगन्नाथ जी के नाम का कीर्तन करता हुआ गुंडीचा नगर तक जाता है वह पुनर्जन्म से मुक्त हो जाता है। जो व्यक्ति श्री जगन्नाथ जी का दर्शन करते हुए, प्रणाम करते हुए मार्ग के धूल-कीचड़ आदि में लोट-लोट कर जाते हैं वे सीधे भगवान श्री विष्णु के उत्तम धाम को जाते हैं। जो व्यक्ति गुंडिचा मंडप में रथ पर विराजमान श्री कृष्ण, बलराम और सुभद्रा देवी के दर्शन दक्षिण दिशा को आते हुए करते हैं वे मोक्ष को प्राप्त होते हैं। रथयात्रा एक ऐसा पर्व है जिसमें भगवान जगन्नाथ चलकर जनता 7 बीच आते हैं और उनके सुख दुख में सहभागी होते हैं। सब मनिसा मोर परजा (सब मनुष्य मेरी प्रजा है), ये उनके उद्गार है। भगवान जगन्नाथ तो पुरुषोत्तम हैं। उनमें श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुद्ध, महायान का शून्य और अद्वैत का ब्रह्म समाहित है। उनके अनेक नाम है, वे पतित पावन हैं।
महाप्रसाद का गौरव —
रथयात्रा में सबसे आगे ताल ध्वज पर श्री बलराम, उसके पीछे पद्म ध्वज रथ पर माता सुभद्रा व सुदर्शन चक्र और अन्त में गरुण ध्वज पर या नन्दीघोष नाम के रथ पर श्री जगन्नाथ जी सबसे पीछे चलते हैं। तालध्वज रथ ६५ फीट लंबा, ६५ फीट चौड़ा और ४५ फीट ऊँचा है। इसमें ७ फीट व्यास के १७ पहिये लगे हैं। बलभद्र जी का रथ तालध्वज और सुभद्रा जी का रथ को देवलन जगन्नाथ जी के रथ से कुछ छोटे हैं। सन्ध्या तक ये तीनों ही रथ मन्दिर में जा पहुँचते हैं। अगले दिन भगवान रथ से उतर कर मन्दिर में प्रवेश करते हैं और सात दिन वहीं रहते हैं। गुंडीचा मन्दिर में इन नौ दिनों में श्री जगन्नाथ जी के दर्शन को आड़प-दर्शन कहा जाता है। श्री जगन्नाथ जी के प्रसाद को महाप्रसाद माना जाता है जबकि अन्य तीर्थों के प्रसाद को सामान्यतः प्रसाद ही कहा जाता है। श्री जगन्नाथ जी के प्रसाद को महाप्रसाद का स्वरूप महाप्रभु बल्लभाचार्य जी के द्वारा मिला। कहते हैं कि महाप्रभु बल्लभाचार्य की निष्ठा की परीक्षा लेने के लिए उनके एकादशी व्रत के दिन पुरी पहुँचने पर मन्दिर में ही किसी ने प्रसाद दे दिया। महाप्रभु ने प्रसाद हाथ में लेकर स्तवन करते हुए दिन के बाद रात्रि भी बिता दी। अगले दिन द्वादशी को स्तवन की समाप्ति पर उस प्रसाद को ग्रहण किया और उस प्रसाद को महाप्रसाद का गौरव प्राप्त हुआ। नारियल, लाई, गजामूंग और मालपुआ का प्रसाद विशेष रूप से इस दिन मिलता है ।
जनकपुर मौसी का घर –
जनकपुर में भगवान जगन्नाथ दसों अवतार का रूप धारण करते हैं। विभिन्न धर्मों और मतों के भक्तों को समान रूप से दर्शन देकर तृप्त करते हैं। इस समय उनका व्यवहार सामान्य मनुष्यों जैसा होता है। यह स्थान जगन्नाथ जी की मौसी का है। मौसी के घर अच्छे-अच्छे पकवान खाकर भगवान जगन्नाथ बीमार हो जाते हैं। तब यहाँ पथ्य का भोग लगाया जाता है जिससे भगवान शीघ्र ठीक हो जाते हैं। रथयात्रा के तीसरे दिन पंचमी को लक्ष्मी जी भगवान जगन्नाथ को ढूँढ़ते यहाँ आती हैं। तब द्वैतापति दरवाज़ा बंद कर देते हैं जिससे लक्ष्मी जी नाराज़ होकर रथ का पहिया तोड़ देती है और हेरा गोहिरी साही पुरी का एक मुहल्ला जहाँ लक्ष्मी जी का मन्दिर है, वहाँ लौट जाती हैं। बाद में भगवान जगन्नाथ लक्ष्मी जी को मनाने जाते हैं। उनसे क्षमा माँगकर और अनेक प्रकार के उपहार देकर उन्हें प्रसन्न करने की कोशिश करते हैं। इस आयोजन में एक ओर द्वैताधिपति भगवान जगन्नाथ की भूमिका में संवाद बोलते हैं तो दूसरी ओर देवदासी लक्ष्मी जी की भूमिका में संवाद करती है। लोगों की अपार भीड़ इस मान-मनौव्वल के संवाद को सुनकर खुशी से झूम उठती हैं। सारा आकाश जै श्री जगन्नाथ के नारों से गूँज उठता है। लक्ष्मी जी को भगवान जगन्नाथ के द्वारा मना लिए जाने को विजय का प्रतीक मानकर इस दिन को विजयादशमी और वापसी को बोहतड़ी गोंचा कहा जाता है। रथयात्रा में पारम्परिक सद्भाव, सांस्कृतिक एकता और धार्मिक सहिष्णुता का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है।
देवर्षि नारद को वरदान —
श्री जगन्नाथ जी की रथयात्रा में भगवान श्री कृष्ण के साथ राधा या रुक्मिणी नहीं होतीं बल्कि बलराम और सुभद्रा होते हैं। उसकी कथा कुछ इस प्रकार प्रचलित है – द्वारिका में श्री कृष्ण रुक्मिणी आदि राज महिषियों के साथ शयन करते हुए एक रात निद्रा में अचानक राधे-राधे बोल पड़े। महारानियों को आश्चर्य हुआ। जागने पर श्रीकृष्ण ने अपना मनोभाव प्रकट नहीं होने दिया, लेकिन रुक्मिणी ने अन्य रानियों से वार्ता की कि, सुनते हैं वृन्दावन में राधा नाम की गोपकुमारी है जिसको प्रभु ने हम सबकी इतनी सेवा निष्ठा भक्ति के बाद भी नहीं भुलाया है। राधा की श्रीकृष्ण के साथ रहस्यात्मक रास लीलाओं के बारे में माता रोहिणी भली प्रकार जानती थीं। उनसे जानकारी प्राप्त करने के लिए सभी महारानियों ने अनुनय-विनय की। पहले तो माता रोहिणी ने टालना चाहा लेकिन महारानियों के हठ करने पर कहा, ठीक है। सुनो, सुभद्रा को पहले पहरे पर बिठा दो, कोई अंदर न आने पाए, भले ही बलराम या श्रीकृष्ण ही क्यों न हों।
माता रोहिणी के कथा शुरू करते ही श्री कृष्ण और बलरम अचानक अन्त:पुर की ओर आते दिखाई दिए। सुभद्रा ने उचित कारण बता कर द्वार पर ही रोक लिया। अन्त:पुर से श्रीकृष्ण और राधा की रासलीला की वार्ता श्रीकृष्ण और बलराम दोनो को ही सुनाई दी। उसको सुनने से श्रीकृष्ण और बलराम के अंग अंग में अद्भुत प्रेम रस का उद्भव होने लगा। साथ ही सुभद्रा भी भाव विह्वल होने लगीं। तीनों की ही ऐसी अवस्था हो गई कि पूरे ध्यान से देखने पर भी किसी के भी हाथ-पैर आदि स्पष्ट नहीं दिखते थे। सुदर्शन चक्र विगलित हो गया। उसने लंबा-सा आकार ग्रहण कर लिया। यह माता राधिका के महाभाव का गौरवपूर्ण दृश्य था।
अचानक नारद के आगमन से वे तीनों पूर्व वत हो गए। नारद ने ही श्री भगवान से प्रार्थना की कि हे भगवान आप चारों के जिस महाभाव में लीन मूर्तिस्थ रूप के मैंने दर्शन किए हैं, वह सामान्य जनों के दर्शन हेतु पृथ्वी पर सदैव सुशोभित रहे। महाप्रभु ने तथास्तु कह दिया।
रथ यात्रा का प्रारंभ —
कहते हैं कि राजा इन्द्रद्युम्न, जो सपरिवार नीलांचल सागर (उड़ीसा) के पास रहते थे, को समुद्र में एक विशालकाय काष्ठ दिखा। राजा के उससे विष्णु मूर्ति का निर्माण कराने का निश्चय करते ही वृद्ध बढ़ई के रूप में विश्वकर्मा जी स्वयं प्रस्तुत हो गए। उन्होंने मूर्ति बनाने के लिए एक शर्त रखी कि मैं जिस घर में मूर्ति बनाऊँगा उसमें मूर्ति के पूर्णरूपेण बन जाने तक कोई न आए। राजा ने इसे मान लिया। आज जिस जगह पर श्रीजगन्नाथ जी का मन्दिर है उसी के पास एक घर के अंदर वे मूर्ति निर्माण में लग गए। राजा के परिवारजनों को यह ज्ञात न था कि वह वृद्ध बढ़ई कौन है। कई दिन तक घर का द्वार बंद रहने पर महारानी ने सोचा कि बिना खाए-पिये वह बढ़ई कैसे काम कर सकेगा। अब तक वह जीवित भी होगा या मर गया होगा। महारानी ने महाराजा को अपनी सहज शंका से अवगत करवाया। महाराजा के द्वार खुलवाने पर वह वृद्ध बढ़ई कहीं नहीं मिला लेकिन उसके द्वारा अर्द्धनिर्मित श्री जगन्नाथ, सुभद्रा तथा बलराम की काष्ठ मूर्तियाँ वहाँ पर मिली।
महाराजा और महारानी दुखी हो उठे। लेकिन उसी क्षण दोनों ने आकाशवाणी सुनी, ‘व्यर्थ दु:खी मत हो, हम इसी रूप में रहना चाहते हैं मूर्तियों को द्रव्य आदि से पवित्र कर स्थापित करवा दो।’ आज भी वे अपूर्ण और अस्पष्ट मूर्तियाँ पुरुषोत्तम पुरी की रथयात्रा और मन्दिर में सुशोभित व प्रतिष्ठित हैं। रथयात्रा माता सुभद्रा के द्वारिका भ्रमण की इच्छा पूर्ण करने के उद्देश्य से श्रीकृष्ण व बलराम ने अलग रथों में बैठकर करवाई थी। माता सुभद्रा की नगर भ्रमण की स्मृति में यह रथयात्रा पुरी में हर वर्ष होती है।
पृष्ठभूमि में स्थित दर्शन और इतिहास –
कल्पना और किंवदंतियों में जगन्नाथ पुरी का इतिहास अनूठा है। आज भी रथयात्रा में जगन्नाथ जी को दशावतारों के रूप में पूजा जाता है, उनमें विष्णु, कृष्ण और वामन भी हैं और बुद्ध भी। अनेक कथाओं और विश्वासों और अनुमानों से यह सिद्ध होता है कि भगवान जगन्नाथ विभिन्न धर्मो, मतों और विश्वासों का अद्भुत समन्वय है। जगन्नाथ मन्दिर में पूजा पाठ, दैनिक आचार-व्यवहार, रीति-नीति और व्यवस्थाओं को शैव, वैष्णव, बौद्ध, जैन यहाँ तक तांत्रिकों ने भी प्रभावित किया है। भुवनेश्वर के भास्करेश्वर मन्दिर में अशोक स्तम्भ को शिव लिंग का रूप देने की कोशिश की गई है। इसी प्रकार भुवनेश्वर के ही मुक्तेश्वर और सिद्धेश्वर मन्दिर की दीवारों में शिव मूर्तियों के साथ राम, कृष्ण और अन्य देवताओं की मूर्तियाँ हैं। यहाँ जैन और बुद्ध की भी मूर्तियाँ हैं पुरी का जगन्नाथ मन्दिर तो धार्मिक सहिष्णुता और समन्वय का अद्भुत उदाहरण है। मन्दिर कि पीछे विमला देवी की मूर्ति है जहाँ पशुओं की बलि दी जाती है, वहीं मन्दिर की दीवारों में मिथुन मूर्तियों चौंकाने वाली है। यहाँ तांत्रिकों के प्रभाव के जीवंत साक्ष्य भी हैं। सांख्य दर्शन के अनुसार शरीर के २४ तत्वों के ऊपर आत्मा होती है। ये तत्व हैं- पंच महातत्व, पाँच तंत्र माताएँ, दस इन्द्रियों और मन के प्रतीक हैं। रथ का रूप श्रद्धा के रस से परिपूर्ण होता है। वह चलते समय शब्द करता है। उसमें धूप और अगरबत्ती की सुगंध होती है। इसे भक्तजनों का पवित्र स्पर्श प्राप्त होता है। रथ का निर्माण बुद्धि, चित्त और अहंकार से होती है। ऐसे रथ रूपी शरीर में आत्मा रूपी भगवान जगन्नाथ विराजमान होते हैं। इस प्रकार रथयात्रा शरीर और आत्मा के मेल की ओर संकेत करता है और आत्मदृष्टि बनाए रखने की प्रेरणा देती है। रथयात्रा के समय रथ का संचालन आत्मा युक्त शरीर करती है जो जीवन यात्रा का प्रतीक है। यद्यपि शरीर में आत्मा होती है तो भी वह स्वयं संचालित नहीं होती, बल्कि उस माया संचालित करती है। इसी प्रकार भगवान जगन्नाथ के विराजमान होने पर भी रथ स्वयं नहीं चलता बल्कि उसे खींचने के लिए लोक-शक्ति की आवश्यकता होती है।
सम्पूर्ण भारत में वर्षभर होने वाले प्रमुख पर्वों होली, दीपावली, दशहरा, रक्षा बंधन, ईद, क्रिसमस, वैशाखी की ही तरह पुरी का रथयात्रा का पर्व भी महत्त्वपूर्ण है। पुरी का प्रधान पर्व होते हुए भी यह रथयात्रा पर्व पूरे भारतवर्ष में लगभग सभी नगरों में श्रद्धा और प्रेम के साथ मनाया जाता है। जो लोग पुरी की रथयात्रा में नहीं सम्मिलित हो पाते वे अपने नगर की रथयात्रा में अवश्य शामिल होते हैं। रथयात्रा के इस महोत्सव में जो सांस्कृतिक और पौराणिक दृश्य उपस्थित होता है उसे प्राय: सभी देशवासी सौहार्द्र, भाई-चारे और एकता के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं। जिस श्रद्धा और भक्ति से पुरी के मन्दिर में सभी लोग बैठकर एक साथ श्री जगन्नाथ जी का महाप्रसाद प्राप्त करते हैं उससे वसुधैव कुटुंबकम् का महत्व स्वत: परिलक्षित होता है। उत्साहपूर्वक श्री जगन्नाथ जी का रथ खींचकर लोग अपने आपको धन्य समझते हैं। श्री जगन्नाथपुरी की यह रथयात्रा सांस्कृतिक एकता तथा सहज सौहार्द्र की एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में देखी जाती है।
भगीरथ का भागीरथ प्रयास और गंगादशहरा
श्रीमती डा. शारदा नरेन्द्र मेहता
दशमी शुक्लपक्षे तु ज्येष्ठमासे बुधेड हनि।
अवतीर्णा यत: स्वर्गाद्धस्तर्क्षे च सरिद्धरा ।।
ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि गंगा दशहरा के नाम से प्रसिद्ध है। इस तिथि को यदि बुधवार हो और हस्त नक्षत्र हो तो इसका महत्व और भी बढ़ जाता है। इस दिन गंगा नदी का अवतरण पृथ्वी पर हुआ था। यह तिथि सब पापों का नाश करने वाली मानी जाती है।
गंगा अवतरण कथा- इक्ष्वाकु वंश के राजा सगर की दो रानियाँ थी। कश्यप पुत्री सुमति तथा विदर्भ राज की पुत्री केशिनी। केशिनी के गर्भ से असमंजस नामक बालक का जन्म हुआ था सुमति ने साठ हजार पुत्रों को जन्म दिया था। असमंजस के पुत्र अंशुमान तथा अंशुमान के पुत्र दिलीप तथा पौत्र भगीरथ हुए। भगीरथ ने अपने साठ हजार पूर्वजों के उद्धार करने के लिए ब्रह्मा जी से प्रार्थना की कि गंगा नदी को संभालने में पृथ्वी पर अवतरित करें। ब्रह्मा जी का कथन था कि गंगाजी के प्रबल वेग को संभालने में शकंर जी के सिवाय कोई समर्थ नहीं है। अत: भगीरथ ने शकंर जी को प्रार्थना की और उन्होंने जटा में गंगा जी को धारण कर लिया। मार्ग में जह्नु नामक ऋषि ने गंगा जल का पान कर लिया। भगीरथ ने ऋषि की सेवा प्रार्थना की और उन्हें प्रसन्न कर लिया। गंगा जी जह्नु ऋषि की जाँघ से बाहर आई। तभी से गंगा का नाम जाह्नवी हुआ। गंगा नदी के कई पर्यायवाची नाम हैं यथा- अलकनन्दा, विष्णु पदी, मन्दाकिनी, हरिप्रिया, त्रिपथगा, सुरसरि, स्वर्गङ्गा, पाताल गंगा, पद्मा, मेघना, हुगली, भागीरथी, जाह्नवी आदि।
स्नान विधि- इस दिन गंगा स्नान का विशेषमहत्व है। इस दिन गंगा नदी में स्नान करने से तीनों प्रकार के पापों का नाश होता हैं। ये तीन पाप हैं- कायिक पाप- १. दूसरे की वस्तु का हरण करना है। २. शास्त्र वर्जित हिंसा करना ३. परस्त्री गमन।
वाचिक पाप – ४ कटु बोलना, ५ झूठ बोलना, ६ परोक्ष में किसी का दोष कहना, ७ प्रयोजनहीन बातें करना।
मानसिक- ८ दूसरे के द्रव्य हड़पने का विचार मन में लाना, ९. मन में अनिष्ठ चिन्तन तथा १०. नास्तिक बुद्धि। ज्येष्ठ मास शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि के दिन गंगा स्नान करने से ये दस प्रकार के पापों का शमन होता है। इसलिए इस दिन को गंगा दशहरा कहते हैं।
पूजन विधि- इस दिन की पूजन साम्रगी में दस दीपक, दस ताम्बूल, दस फल, दस प्रकार के सुगन्धित पुष्प, दस धूपबत्ती, तथा दस प्रकार के नैवेद्य का विधान है। आम, सत्तू, पंखा तथा पानी से भरा मटका भी दान देने की परम्परा है। दस ब्राह्मण भी दक्षिणा के अधिकारी हैं। ऐसा कथन है कि सोलह सोलह मुठ्ठी जौ और तिल भी दान दिये जाते हैं। गंगा- स्त्रोत का पाठ, विष्णुसहस्त्र नाम तथा गंगावतरण की कथा सुनने की परम्परा हैं।
यदि कोई भक्त नदी पर जाने में असमर्थ है या उस क्षेत्र में नदी नहीं है तो अपने निवास पर पाटला रख कर उस पर लाल वस्त्र बिछाकर उस पर जल भरा कलश रख कर गंगा पूजन कर सकता है और निम्राकित श्लोक का पाठ करें-
सरस्वती रजोरुपा तमोरुपा कलिन्द जा।
सत्वरुपा च गंगाऽत्र जयन्ती ब्रह्म निर्गुणम्।।
पद्मपुराण सृष्टि खंड में कहा गया है कि गंगा ही एकमात्र ऐसी नदी है जो किसी भी प्रकार से पापग्रस्त पतित का उद्धार कर देती है।
गंगा नदी का आर्थिक महत्व- गंगाजी का धार्मिक भौगोलिक तथा साहित्यिक महत्व तो है ही परन्तु इसका आर्थिक महत्व सर्वोपरि है। गंगा-सिन्धु का विशाल उपजाऊ मैदान अपनी उपजाऊ मिट्टी के लिये प्रसिद्ध है। यहाँ की प्रसिद्ध फसलें गन्ना, धान, दलहन, तिलहन, गेहूँ तथा आलू आदि हैं।
पर्यटन का महत्व- पर्यटन की दृष्टि से भी गंगा नदी के किनारे बसे हुए ऐतिहासिक तथा धार्मिक स्थल पर्यटकों के लिए विशेष आकर्षण का केन्द्र रहे हैं। यहाँ बड़ी मात्रा में विदेशी पर्यटकों का आगमन होता रहता है जो आर्थिक उपार्जन में सहायक है। इलाहाबाद, हरिद्वार, ऋषिकेश, वाराणसी आदि महत्वपूर्ण स्थल गंगा किनारे बसे हुए हैं। देश-विदेेश से गंगा दशहरे के दिन गंगा स्नान के लिए भक्तगण आते हैं और गंगा-आरती में उपस्थित होकर पुण्यलाभ प्राप्त करते हैं। विश्व का सबसे बड़ा डेल्टा सुन्दरबन भी गंगा के किनारे है। जूट तथा चावल का उत्पादन भी यहाँ होता है। गंगा के ऊपर प्रसिद्ध विशाल बाँध बने हुए हैं। इनसे सिंचाई, विद्युत उत्पादन तथा मछली उत्पादन विपुल मात्रा में होता है।
प्रदूषण के कारण – गंगा के किनारे बसे शहरों की मलमूत्र विसर्जन, चमड़े के कारखानों का दूषित पानी, रासायनिक तथा कीटनाशक का प्रयोग, अधजली लाशें, किनारें पर छोड़ गये कपड़े, प्लास्टिक सामग्री आदि ने गंगा जैसी पवित्र नदी को प्रदूषित कर दिया है। राजा भगीरथ के भगीरथ प्रयास से लाई गई इस सुरसरि को हमें प्रदूषण से बचाना होगा, तभी भारत की यह जीवनधारा सुरक्षित रह सकेगी।
हमारे प्रधानमंत्री की नमामि गंगे योजना के अन्तर्गत गंगा नदी को प्रदूषण मुक्त करने के लिए एक विशाल धन राशि स्वीकृत की है। अब शासन और जनता के सहयोग से ही हमारी पवित्र नदी अपने प्राचीन स्वरूप को धारण कर लेगी और हमारा गंगा दशहरा पर्व सच्चे अर्थों में सार्थक सिद्ध होगा।
एक गुजराती तथा राजस्थानी लोकगीत में कहा गया है-
”मनरवा अवतार पायो नहीं नाह्यों जीवड़ा,
व्यर्थ बिताया अवतार थारो,
चेतीजा चेतीजा तु हाड़का भीजड़ जीवड़ा,
थने चेतवे पवितर गंगा माय जी।
मनुष्य देह पाने पर भी तूने अभी तक गंगा स्नान नहीं किया है। तेरा अवतार व्यर्थ गया। अब भी चेत जीते जी अपनी हड्डियों को उस पवित्र गंगा में डुबकी कर भीग जा।
इस प्रकार भारत के जन-जन के मानस में बसी गंगा नदी में एक बार भी मानस में बसी गंगा नदी में एक बार भी स्नान करने पर, उसमें डुबकी लगाने पर ही हमारा मानव जीवन सार्थक सिद्ध होगा। यही हर भारतवासी की हार्दिक भावना रही है और यदि वह दिन गंगा-दशहरे का हो तो फिर सोने में सुहागा होगा।
अक्षय तृतीया : एक मांगलिक पर्व
डॉ.नीलम खरे द्वारा
(अक्षय तृतीया 7 मई पर विशेष ) वैशाख शुक्ल तृतीया को अक्षय तृतीया या आखा तीज कहते हैं। यह सनातन धर्मियों का प्रधान त्यौहार है। इस दिन दिए हुए दान और किये हुए स्नान, यज्ञ, जप आदि सभी कर्मों का फल अनन्त और अक्षय (जिसका क्षय या नाश न हो) होता है। इसलिए इस त्यौहार का नाम अक्षय तृतीया रखा गया है।
1. वैशाख मास में शुक्लपक्ष की तृतीया अगर दिन के पूर्वाह्न (प्रथमार्ध) में हो तो उस दिन यह त्यौहार मनाया जाता है।
2. यदि तृतीया तिथि लगातार दो दिन पूर्वाह्न में रहे तो अगले दिन यह पर्व मनाया जाता है, हालाँकि कुछ लोगों का ऐसा भी मानना है कि यह पर्व अगले दिन तभी मनाया जायेगा जब यह तिथि सूर्योदय से तीन मुहूर्त तक या इससे अधिक समय तक रहे।
3. तृतीया तिथि में यदि सोमवार या बुधवार के साथ रोहिणी नक्षत्र भी पड़ जाए तो बहुत श्रेष्ठ माना जाता है।
अक्षय तृतीया व्रत-पूजन विधि–
1. इस दिन व्रत करने वाले को चाहिए की वह सुबह स्नानादि से शुद्ध होकर पीले वस्त्र धारण करें।
2. अपने घर के मंदिर में विष्णु जी को गंगाजल से शुद्ध करके तुलसी, पीले फूलों की माला या पीले पुष्प अर्पित करें।
3. फिर धूप-अगरबत्ती, ज्योत जलाकर पीले आसन पर बैठकर विष्णु जी से सम्बंधित पाठ (विष्णु सहस्त्रनाम, विष्णु चालीसा) पढ़ने के बाद अंत में विष्णु जी की आरती पढ़ें।
4. साथ ही इस दिन विष्णु जी के नाम से गरीबों को खिलाना या दान देना अत्यंत पुण्य-फलदायी होता है।
अगर पूर्ण व्रत रखना संभव न हो तो पीला मीठा हलवा, केला, पीले मीठे चावल बनाकर खा सकते हैं।
पौराणिक कथाओं के अनुसार इस दिन नर-नारायण, परशुराम व हयग्रीव अवतार हुए थे। इसलिए मान्यतानुसार कुछ लोग नर-नारायण, परशुराम व हयग्रीव जी के लिए जौ या गेहूँ का सत्तू, कोमल ककड़ी व भीगी चने की दाल भोग के रूप में अर्पित करते हैं।
अक्षय तृतीया कथा-
हिन्दू पुराणों के अनुसार युधिष्ठिर ने भगवान श्री कृष्ण से अक्षय तृतीया का महत्व जानने के लिए अपनी इच्छा व्यक्त की थी। तब भगवान श्री कृष्ण ने उनको बताया कि यह परम पुण्यमयी तिथि है। इस दिन दोपहर से पूर्व स्नान, जप, तप, होम (यज्ञ), स्वाध्याय, पितृ-तर्पण, और दानादि करने वाला व्यक्ति अक्षय पुण्यफल का भागी होता है।
प्राचीन काल में एक गरीब, सदाचारी तथा देवताओं में श्रद्धा रखने वाला वैश्य रहता था। वह गरीब होने के कारण बड़ा व्याकुल रहता था। उसे किसी ने इस व्रत को करने की सलाह दी। उसने इस पर्व के आने पर गंगा में स्नान कर विधिपूर्वक देवी-देवताओं की पूजा की व दान दिया। यही वैश्य अगले जन्म में कुशावती का राजा बना। अक्षय तृतीया को पूजा व दान के प्रभाव से वह बहुत धनी तथा प्रतापी बना। यह सब अक्षय तृतीया का ही पुण्य प्रभाव था।
अक्षय तृतीया का महत्व-
1. अक्षय तृतीया का दिन साल के उन साढ़े तीन मुहूर्त में से एक है जो सबसे शुभ माने जाते हैं। इस दिन अधिकांश शुभ कार्य किए जा सकते हैं।
2. इस दिन गंगा स्नान करने का भी बड़ा भारी माहात्म्य बताया गया है। जो मनुष्य इस दिन गंगा स्नान करता है, वह निश्चय ही सारे पापों से मुक्त हो जाता है।
3. इस दिन पितृ श्राद्ध करने का भी विधान है। जौ, गेहूँ, चने, सत्तू, दही-चावल, दूध से बने पदार्थ आदि सामग्री का दान अपने पितरों (पूर्वजों) के नाम से करके किसी ब्राह्मण को भोजन कराना चाहिए।
4. इस दिन किसी तीर्थ स्थान पर अपने पितरों के नाम से श्राद्ध व तर्पण करना बहुत शुभ होता है।
5. कुछ लोग यह भी मानते हैं कि सोना ख़रीदना इस दिन शुभ होता है।
6. इसी तिथि को परशुराम व हयग्रीव अवतार हुए थे।
7. त्रेतायुग का प्रांरभ भी इसी तिथि को हुआ था।
8. इस दिन श्री बद्रीनाथ जी के पट खुलते हैं।
वस्तुत: इस त्यौहार को बड़ा पवित्र और महान फल देने वाला बताया गया है ।इसे स्वयंसिद्ध मुहूर्त का दिवस भी माना जाता है।इस दिन को विवाह हेतु बहुत ही पावन माना जाता है। आप सभी को इस पर्व की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ।
सौभाग्य का प्रतीक अर्थात् वरुथिनी एकादशी व्रत
गोविंद चन्दोरिया
(वरुथिनी एकादशी पर विशेष) इस बार वरुथिनी एकादशी व्रत मंगलवार 30 अप्रैल 2019 को है। इस व्रत की अपनी महत्वता है। कहा जाता है कि जो वरुथिनी एकादशी की व्रत पूजा करता है उसे भगवान विष्णु का आशीर्वाद मिलता है। व्रतधारी को सौभाग्य प्राप्त होता है, इस प्रकार यह व्रत सौभाग्यशाली ही रख पाते हैं। मान्यता अनुसार वरुथिनी एकादशी में व्रत करने से संतानें दीर्घायु होती हैं। उन्हें किसी प्रकार के संकट का सामना भी नहीं करना होता है। किसी दुर्घटना से सुरक्षित रखने का काम भी यह व्रत करता है।
यहां आपको बतला दें कि वरुथिनी एकादशी व्रत में विष्णु भगवान की पूजा की जाती है। मान्यता है कि वरुथिनी एकादशी का व्रत करने से विष्णु भगवान प्रसन्न होकर खूब धन-धान्य करते हैं। वैशाख माह में 2 एकादशी आती हैं, इसमें से कृष्ण पक्ष की एकादशी को ही वरुथिनी एकादशी कहा जाता है।
वरुथिनी एकादशी की कथानुसार बताया जाता है कि सदियों पहले नर्मदा नदी के तट पर एक राजा निवास करता था। राजा का नाम मानधाता था। राजा बहुत दयालु, धार्मिक और दान-पुण्य करने वाला था। यही नहीं बल्कि राजा भगवान को भी बहुत मानता था। राजा तपस्वी था और जंगल में बैठकर घंटों भगवान विष्णु की तपस्या किया करता था, ताकि उसे भगवान विष्णु मिल सकें। एक दिन जबकि वो तपस्या में लीन था, एक जंगली भालू आ गया और वो राजा को मुंह से पकड़कर जंगल की ओर ले जाने लगा। इस पर राजा ने जरा भी क्रोध नहीं किया और वह अपनी तपस्या में ही लीन रहा। तपस्या करते हुए ही राजा ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की कि ‘हे भगवन मुझे इस संकट से बचाएं।’ राजा की भक्ति और तपस्या से भगवान विष्णु प्रसन्न हुए और प्रकट हो अपने चक्र से भालू को मार गिराया। चूंकि भालू ने राजा का पैर जख़्मी कर दिया था अत: राजा बहुत दुखी हुआ। इस पर विष्णु भगवान ने राजा से कहा कि वो मथुरा चले जाएं और वहां वरुथिनी एकादशी का व्रत करें और मेरी वराह अवतार मूर्ती की पूजा करें। ऐसा करने पर राजा को आश्वत किया कि उनके चोटिल सारे अंग और पैर ठीक हो जाएंगे। राजा ने ऐसा ही किया और विष्णु के कहे अनुसार ही वो बिल्कुल ठीक भी हो गया। इसलिए यह मान्यता है कि जो व्यक्ति वरुथिनी एकादशी की व्रत-पूजा करता है, उसे चोट नहीं लगती और उसके साथ कोई दुर्घटना भी घटित नहीं होती।
ऐसी भी मान्यता है कि वरुथिनी एकादशी पर व्रत रखने से इस लोक के साथ परलोक में भी पुण्य प्राप्त होता है। धर्म ज्ञाता व पंडितों का कहना है कि वरुथिनी एकादशी की पूजा करते समय इन बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए। सबसे पहले तो इसमें विष्णु भगवान की व्रत-पूजा होनी चाहिए। सुबह के समय गंगाजल से स्नान करना उत्तम होता है और उसके बाद सफ़ेद वस्त्र धारण करने चाहिए। एक कलश की स्थापना करते हुए उसके ऊपर आम के पल्लव, नारियल, लाल चुनरी बांधकर रखना चाहिए। धूप, दीपक जलाकर बर्फी, खरबूजा और आम का भोग लगाएं और ॐ नमो भगवते वासुदेवाय मंत्र का जाप करना चाहिए। खास बात यह है कि यह व्रत अगले दिन पूजा पाठ करके ही खोला जाता है। व्रत के समय सिर्फ फलाहार ही किया जा सकता है।
गणगौर है दाम्पत्य की खुशहाली का पर्व
बेला गर्ग
(गणगौर 08 अप्रैल पर विशेष) गणगौर राजस्थानी आन-बान-शान का प्राचीन पर्व हैं। हर युग में कुंआरी कन्याओं एवं नवविवाहिताओं का अपितु संपूर्ण मानवीय संवेदनाओं का गहरा संबंध इस पर्व से जुड़ा रहा है। यद्यपि इसे सांस्कृतिक उत्सव के रूप में मान्यता प्राप्त है किन्तु जीवन मूल्यों की सुरक्षा एवं वैवाहिक जीवन की सुदृढ़ता में यह एक सार्थक प्रेरणा भी बना है। यह पर्व सांस्कृतिक, पारिवारिक एवं धार्मिक चेतना की ज्योति किरण है। इससे हमारी पारिवारिक चेतना जाग्रत होती है, जीवन एवं जगत में प्रसन्नता, गति, संगति, सौहार्द, ऊर्जा, आत्मशुद्धि एवं नवप्रेरणा का प्रकाश परिव्याप्त होता है। यह पर्व जीवन के श्रेष्ठ एवं मंगलकारी व्रतों, संकल्पों तथा विचारों को अपनाने की प्रेरणा देता है।
गणगौर शब्द का गौरव अंतहीन पवित्र दाम्पत्य जीवन की खुशहाली से जुड़ा है। कुंआरी कन्याएं अच्छा पति पाने के लिए और नवविवाहिताएं अखंड सौभाग्य की कामना के लिए यह त्यौहार हर्षोल्लास के साथ मनाती हैं, व्रत करती हैं, सज-धज कर सोलह शृंगार के साथ गणगौर की पूजा की शुरुआत करती है। पति और पत्नी के रिश्तें को यह फौलादी सी मजबूती देने वाला त्यौहार है, वहीं कुंआरी कन्याओं के लिए आदर्श वर की इच्छा पूरी करने का मनोकामना पर्व है। यह पर्व आदर्शों की ऊंची मीनार है, सांस्कृतिक परम्पराओं की अद्वितीय कड़ी है एवं रीति-रिवाजों का मान है।
गणगौर का त्यौहार होली के दूसरे दिन से ही आरंभ हो जाता है जो पूरे अठारह दिन तक लगातार चलता है। चैत्र कृष्ण प्रतिपदा से कुुंआरी कन्याएं और नवविवाहिताएं प्रतिदिन गणगौर पूजती हैं, वे चैत्र शुक्ला द्वितीया (सिंजारे) के दिन किसी नदी, तालाब या सरोवर पर जाकर अपनी पूजी हुई गणगौरों को पानी पिलाती हैं और दूसरे दिन सायंकाल के समय उनका विसर्जन कर देती हैं।
अठारह दिनों तक चलने वाले इस त्यौहार में होली की राख से सोलह पीण्डियां बनाकर पाटे पर स्थापित कर आस-पास ज्वारे बोए जाते हैं। ईसर अर्थात शिव रूप में गण और गौर रूप में पार्वती को स्थापित कर उनकी पूजा की जाती है। मिट्टी से बने कलात्मक रंग-रंगीले ईसर गण-गौर झुले में झुलाए जाते हैं। सायंकाल बींद-बींनणी बनकर बागों में या मोहल्लों में रंग-बिरंगे परिधान, आभूषणों में किशोरियां और नवविवाहिताएं आमोद-प्रमोद के साथ घूमर नृत्य करती हैं, आरतियां गाती हैं, गौर पूजन के गीत गाकर खुश होती हैं। जल, रोली, मौली, काजल, मेहंदी, बिंदी, फूल, पत्ते, दूध, पाठे, हाथों में लेकर वे कामना करती हैं कि हम भाई को लड्डू देंगे, भाई हमें चुनरी देगा, हम गौर को चुनरी धारण करायेंगे, गौर हमें मनमाफिक सौभाग्य देगी।
गणगौर त्यौहार विशेषतः पश्चिम भारत खासतौर से राजस्थान, गुजरात, निमाड़-मालवा में मनाया जाता है। इस पर्व को मनाने के अलग-अलग जगह के अलग-अलग तरीके हैं। कन्याएं कलश को सिर पर रखकर घर से निकलती हैं तथा किसी मनोहर स्थान पर उन कलशों को रखकर इर्द-गिर्द घूमर लेती हैं। जोधपुर में लोटियों का मेला लगता है। वस्त्र और आभूषणों से सजी-धजी, कलापूर्ण लोटियों की मीनार को सिर पर रखे, हजारों की संख्या में गाती हुई नारियों के स्वर से जोधपुर का पूरा बाजार गूंज उठता है।
नाथद्वारा में सात दिन तक लगातार सवारी निकलती है। सवारी में भाग लेने वाले व्यक्तियों की पोशाक भी उस रंग की होती है जिस रंग की गणगौर की पोशाक होती है। सात दिन तक अलग-अलग रंग की पोशाक पहनी जाती हैं। आम जनता के वस्त्र गणगौर के अवसर पर निःशुल्क रंगे जाते हैं। उदयपुर में गणगौर की नाव प्रसिद्ध है। जयपुर में ़ित्रपोलिया गेट से आज भी राजशाही तरीके से गणगौर की सवारी अतीत की परम्परा को जीवंत करती है। इस प्रकार पूरे राजस्थान में गणगौर उत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है।
नाचना और गाना तो इस त्यौहार का मुख्य अंग है ही। घरों के आंगन में, सालेड़ा आदि नाच की धूम मची रहती है। परदेश गए हुए इस त्यौहार पर घर लौट आते हैं। जो नहीं आते हैं उनकी बड़ी आतुरता से प्रतीक्षा की जाती है। आशा रहती है कि गणगौर की रात को जरूर आयेंगे। झुंझलाहट, आह्लाद और आशा भरी प्रतीक्षा की मीठी पीड़ा को व्यक्त करने का साधन नारी के पास केवल उनके गीत हैं। ये गीत उनकी मानसिक दशा के बोलते चित्र हैं।
भौतिक एवं भोगवादी भागदौड़ की दुनिया में गणगौर का पर्व दुःखों को दूर करने एवं सुखों का सृजन करने का प्रेरक है। यह पर्व दाम्पत्य जीवन के दायित्वबोध की चेतना का संदेश हैं। इसमें नारी की अनगिनत जिम्मेदारियों के सूत्र गुम्फित होते हैं। यह पर्व उन चैराहों पर पहरा देता है जहां से जीवन आदर्शों के भटकाव की संभावनाएं हैं, यह उन आकांक्षाओं को थामता है जिनकी गति तो बहुत तेज होती है पर जो बिना उद्देश्य बेतहाशा दौड़ती है। यह पर्व नारी को शक्तिशाली और संस्कारी बनाने का अनूठा माध्यम है। वैयक्तिक स्वार्थों को एक ओर रखकर औरों को सुख बांटने और दुःख बटोरने की मनोवृत्ति का संदेश है। गणगौर संपूर्ण मानवीय संवेदनाओं को प्रेम और एकता में बांधने का निष्ठासूत्र है। इसलिए गणगौर का मूल्य केवल नारी तक सीमित न होकर सम्पूर्ण मानव के मनों तक पहुंचे, तभी इस पर्व को मनाने की सार्थकता है।
रोगों से मुक्ति दिलाती है शीतला माता
(28 मार्च शीतलाष्टमी पर विशेष) हिन्दू धर्म के विविध पर्व-त्योहारों को मनाने के पीछे हमारे ऋषियों का उच्चकोटि का तत्व-दर्शन निहित है। ऐसा ही एक त्योहार है शीतलाष्टमी। होली के एक सप्ताह बाद मनाये जाने वाले इस त्योहार पर शीतला माता का पूजन किया और व्रत रखा जाता है। मान्यता है कि माता के पूजन से चेचक, खसरा जैसे संक्रामक रोगों का मुक्ति मिलती है। चूंकि ऋतु-परिवर्तन के दौरान इस समय संक्रामक रोगों के प्रकोप की काफी आशंका रहती है, इसलिए इन रोगों से बचाव के लिए श्रद्धालु शीतलाष्टमी के दिन माता का विधिपूर्वक पूजन करते हैं जिससे शरीर स्वस्थ बना रहे।
शीतला माता की महत्ता के विषय में स्कंद पुराण में विस्तृत वर्णन मिलता है। इसमें उल्लेख है कि शीतला देवी का वाहन गर्दभ है। ये हाथों में कलश, सूप, मार्जन (झाड़ू) और नीम के पत्ते धारण किये हैं। इनका प्रतीकात्मक महत्व है। आशय यह है कि चेचक का रोगी व्यग्रता में वस्त्र उतार देता है। सूप से रोगी को हवा की जाती है। झाड़ू से चेचक के फोड़े फट जाते हैं। नीम की पत्तियां फोड़ों को सडऩे नहीं देतीं। रोगी को ठंडा जल अच्छा लगता है, अत: कलश का महत्व है। गर्दभ की लीद के लेपन से चेचक के दाग मिट जाते हैं। स्कंद पुराण में मां की अर्चना का स्तोत्र है- शीतलाष्टक माना जाता है कि इस स्तोत्र की रचना भगवान शंकर ने की थी। यह स्तोत्र शीतला देवी की महिमा का गान कर उनकी उपासना के लिए भक्तों को प्रेरित करता है।
वन्देहं शीतलां देवीं रासभस्थां दिगम्बराम।
मार्जनीकलशोपेतां शूर्पालड्कृतमस्तकाम।।
अर्थात गर्दभ पर विराजमान दिगम्बरा, हाथ में झाड़ू तथा कलश धारण करने वाली, सूप से अलंकृत मस्तकवाली भगवती शीतला की मैं वंदना करता हूं। शीतला माता के इस वंदना मंत्र से स्पष्ट है कि ये स्वच्छता की अधिष्ठात्री देवी हैं। हाथ में मार्जनी (झाड़ू) होने का अर्थ है कि हम लोगों को भी सफाई के प्रति जागरूक होना चाहिए। कलश से तात्पर्य है कि स्वच्छता रहने पर ही स्वास्थ्य रूपी समृद्धि आती है। मान्यता के अनुसार, इस व्रत को रखने से शीतला देवी प्रसन्न होती हैं और व्रती के कुल में चेचक, खसरा, दाह, ज्वर, पीतज्वर, दुर्गधयुक्त फोड़े और नेत्रों के रोग आदि दूर हो जाते हैं। माता के रोगी के लिए यह व्रत बहुत मददगार है।
आमतौर पर, शीतला रोग के आक्रमण के समय रोगी दाह (जलन) से निरंतर पीडि़त रहता है। उसे शीतलता की बहुत जरूरत होती है। गर्दभ पिंडी (गधे की लीद) की गंध से फोड़ों का दर्द कम हो जाता है। नीम के पत्तों से फोड़े सड़ते नहीं है और जलघट भी उसके पास रखना अनिवार्य है। इससे शीतलता मिलती है।
सामान्य तौर पर शीतला माता का पूजन चैत्र कृष्ण पक्ष की अष्टमी को किया जाता है। भगवती शीतला की पूजा का विधान भी विशिष्ट है। शीतलाष्टमी के एक दिन पूर्व उन्हें भोग लगाने के लिए बासी खाना यानी बसौड़ा तैयार किया जाता है। अष्टमी के दिन बासी पदार्थ ही देवी को नैवेद्य के रूप में अर्पित करते हैं और भक्तों के बीच प्रसाद के रूप में इसे वितरित करते हैं। उत्तर भारत में शीतलाष्टमी का त्योहार बसौड़ा नाम से भी प्रचलित है। मान्यता है, इस दिन के बाद से बासी खाना नहीं खाना चाहिए। यह ऋतु का अंतिम दिन होता है जब बासी खाना खा सकते हैं। इस व्रत में रसोई की दीवार पर हाथ की पांच अंगुली घी से लगाई जाती है। इस पर रोली और चावल लगाकर देवी माता के गीत गाये जाते हैं। इसके साथ, शीतला स्तोत्र तथा कहानी सुनी जाती है। रात में जोत जलाई जाती है। एक थाली में बासी भोजन रखकर परिवार के सारे सदस्यों का हाथ लगवाकर शीतला माता के मंदिर में चढ़ाते हैं। इनकी उपासना से स्वच्छता और पर्यावरण को सुरक्षित रखने की प्रेरणा मिलती है।
शीतला माता एक प्रसिद्ध हिन्दू देवी हैं। इनका प्राचीनकाल से ही बहुत अधिक माहात्म्य रहा है। शीतला-मंदिरों में प्राय: माता शीतला को गर्दभ पर ही आसीन दिखाया गया है। शीतला माता के संग ज्वरासुर- ज्वर का दैत्य, ओलै चंडी बीबी – हैजे की देवी, चौंसठ रोग, घेंटुकर्ण- त्वचा-रोग के देवता एवं रक्तवती – रक्त संक्रमण की देवी होते हैं। इनके कलश में दाल के दानों के रूप में विषाणु या शीतल स्वास्थ्यवर्धक एवं रोगाणु नाशक जल होता है।
लोक किंवदंतियों के अनुसार बसौड़ा की पूजा माता शीतला को प्रसन्न करने के लिए की जाती है। कहते हैं कि एक बार किसी गांव में गांववासी शीतला माता की पूजा-अर्चना कर रहे थे तो मां को गांववासियों ने गरिष्ठ भोजन प्रसादस्वरूप चढ़ा दिया। शीतलता की प्रतिमूर्ति मां भवानी का गर्म भोजन से मुंह जल गया तो वे नाराज हो गईं और उन्होंने कोपदृष्टि से संपूर्ण गांव में आग लगा दी। बस केवल एक बुढिय़ा का घर सुरक्षित बचा हुआ था। गांव वालों ने जाकर उस बुढिय़ा से घर न जलने के बारे में पूछा तो बुढिय़ा ने मां शीतला को गरिष्ठ भोजन खिलाने वाली बात कही और कहा कि उन्होंने रात को ही भोजन बनाकर मां को भोग में ठंडा-बासी भोजन खिलाया। जिससे मां ने प्रसन्न होकर बुढिय़ा का घर जलने से बचा लिया। बुढिय़ा की बात सुनकर गांव वालों ने मा से क्षमा मांगी और रंगपंचमी के बाद आने वाली सप्तमी के दिन उन्हें बासी भोजन खिलाकर मां का बसौड़ा पूजन किया।
सनातन धर्म में आदिशक्ति को मातृ स्वरूप मानकर उनकी अनेक रूपों में पूजा की जाती है। इन्हीं में एक हैं भगवती शीतला माता, जिन्हें आरोग्य और स्वच्छता की देवी माना जाता है। माता शीतला की सवारी गधा है। क्या आपको पता है कि गधे पर ही क्यों विराजती हैं माता शीतला ?
संसार में दो प्रकार के प्राणी होते है। पहला, सौर शक्ति प्रधान और दूसरा चान्द्र शक्ति प्रधान। सौर शक्ति के बारे में कहा जाता है कि सौर शक्ति जीव बहुत चंचल, चुलबुले, तत्काल बिगड़ उठने वाले और असहनशील होते हैं जबकि चान्द्र शक्ति प्रधान व्यक्ति इसके विपरीत होते है। चान्द्र शक्ति प्रधान जीवों में प्रमुख गधा ही माता शीतला का वाहन हो सकता है। यहां गधा संकेत देता है कि चामुण्डा के आक्रमण के समय रोग का अधिक प्रहार सहन करते हुए रोगी को कभी अधीर नहीं होना चाहिए। इसके अतिरिक्त शीतला रोग में गर्दभी का दूध, गधा लोटने के स्थान की मिट्टी और गधों के संपर्क का वातावरण उपयुक्त समझा जाता है। कहते हैं कि कुम्हार को चामुण्डा का भय नहीं होता वहीं ऊंट वाले को कभी पेट का रोग नहीं होता। चामुण्डा शववाहना के अनुसार चामुण्डा का वाहन शव होता है। इसका तात्पर्य यह है कि चामुण्डा से आक्रान्त रोगी को शव की भांति निश्चेष्ट होकर उचित समय की प्रतीक्षा करनी चाहिए।
(रमेश सर्राफ धमोरा द्वारा)
महाशिवरात्रि का महत्व
महाशिवरात्रि हिंदू धर्म के प्रमुख त्योहारों में से एक है। महाशिवरात्रि के पर्व पर भगवान शिव की आराधना का काफी महत्व है। मान्यता है कि महाशिवरात्रि के पर्व पर भोले बाबा की आराधना करने से मां पार्वती और भोले त्रिपुरारी अपने भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूरी करते हैं। महाशिवरात्रि के दिन शिव मंदिरों में भक्त दर्शन के लिए आकर अपनी भक्ति से शिव जी को प्रसन्न करते हैं। महाशिवरात्रि का पर्व 4 मार्च को मनाया जाएगा।
महाशिवरात्रि का महत्व
हिंदू पंचांग के मुताबिक, फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को महाशिवरात्रि का पर्व मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि इस दिन शिव और पार्वती का विवाह संपन्न हुआ था। शास्त्रों की मानें तो महाशिवरात्रि त्रयोदशी युक्त चतुर्दशी को ही मनाई जानी चाहिए। मान्यता है कि महाशिवरात्रि के दिन भगवान शिव पर जल चढ़ाने से भगवान शिव प्रसन्न होते हैं और अपने भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूरी करते हैं।
इस बार महाशिवरात्रि सोमवार के दिन पड़ रही है और सोमवार का दिन भगवान शिव को ही समर्पित है। इसलिए इस महाशिवरात्रि का महत्व काफी बढ़ गया है।
शिवरात्रि की पूजा विधि-
शिव रात्रि को भगवान शंकर को पंचामृत से स्नान करा कराएं।
केसर के 8 लोटे जल चढ़ाएं।
पूरी रात्रि का दीपक जलाएं।
चंदन का तिलक लगाएं।
तीन बेलपत्र, भांग धतूर, तुलसी, जायफल, कमल गट्टे, फल, मिष्ठान, मीठा पान, इत्र व दक्षिणा चढ़ाएं। सबसे बाद में केसर युक्त खीर का भोग लगा कर प्रसाद बांटें।
पूजा में सभी उपचार चढ़ाते हुए ॐ नमो भगवते रूद्राय, ॐ नमः शिवाय रूद्राय् शम्भवाय् भवानीपतये नमो नमः मंत्र का जाप करें।
सूर्य उपासना का पर्व है छठ पूजा
(13 नवम्बर छठ पूजा पर विशेष) छठ सूर्य की उपासना का पर्व है। भारत में सूर्य पूजा की परम्परा वैदिक काल से ही रही है। हिंदुओं के सबसे बड़े पर्व दीपावली को पर्वों की माला माना जाता है। पांच दिन तक चलने वाले ये पर्व छठ पूजा तक चलते है। उत्तर प्रदेश और बिहार में मनाया जाने वाला यह बेहद अहम पर्व है जो पूरे देश में धूम-धाम से मनाया जाता है। छठ पूजा केवल एक पर्व नहीं है बल्कि महापर्व है जो कुल चार दिन तक चलता है। नहाय खाय से लेकर उगते हुए भगवान सूर्य को अर्घ्य देने तक चलने वाले इस पर्व का अपना एक ऐतिहासिक महत्व है।
छठ पर्व को किसने शुरू किया इसके पीछे कई ऐतिहासिक कहानियां प्रचलित हैं। लंका विजय के बाद रामराज्य की स्थापना के दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को भगवान राम और माता सीता ने उपवास किया और सूर्यदेव की आराधना की और सप्तमी को सूर्योदय के समय अनुष्ठान कर सूर्यदेव से आशिर्वाद प्राप्त किया। इसी के उपलक्ष्य में छठ पूजा की जाती है। ऊर्जा का सबसे बड़ा स्रोत सूर्य है। इस कारण हिन्दू शास्त्रों में सूर्य को भगवान मानते हैं। सूर्य के बिना कुछ दिन रहने की जरा कल्पना कीजिए। इनका जीवन के लिए इनका रोज उदित होना जरूरी है। कुछ इसी तरह की परिकल्पना के साथ पूर्वोत्तर भारत के लोग छठ महोत्सव के रूप में इनकी आराधना करते हैं।
हमारे देश में सूर्य उपासना के कई प्रसिद्ध लोकपर्व हैं जो अलग-अलग प्रांतों में अलग-अलग रीति-रिवाजों के साथ मनाए जाते हैं। सूर्य षष्ठी के महत्व को देखते हुए इस पर्व को सूर्यछठ या डाला छठ के नाम से संबोधित किया जाता है। इस पर्व को बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और नेपाल की तराई समेत देश के उन तमाम महानगरों में मनाया जाता है, जहां-जहां इन प्रांतों के लोग निवास करते हैं। यही नहीं, मॉरिशस, त्रिनिडाड, सुमात्रा, जावा समेत कई अन्य विदेशी द्वीपों में भी भारतीय मूल के प्रवासी छठ पर्व को बड़ी आस्था और धूमधाम से मनाते हैं। डूबते सूर्य की विशेष पूजा ही छठ का पर्व है। चढ़ते सूरज को सभी प्रणाम करते हैं।
छठ पर्व की परम्परा में वैज्ञानिक और ज्योतिषीय महत्व भी छिपा हुआ है। षष्ठी तिथि एक विशेष खगोलीय अवसर है। जिस समय धरती के दक्षिणी गोलार्ध में सूर्य रहता है और दक्षिणायन के सूर्य की अल्ट्रावॉइलट किरणें धरती पर सामान्य से अधिक मात्रा में एकत्रित हो जाती हैं। इन दूषित किरणों का सीधा प्रभाव जनसाधारण की आंखों, पेट, त्वचा आदि पर पड़ता है। इस पर्व के पालन से सूर्य प्रकाश की इन पराबैंगनी किरणों से जनसाधारण को हानि न पहुंचे, इस अभिप्राय से सूर्य पूजा का गूढ़ रहस्य छिपा हुआ है। इसके साथ ही घर-परिवार की सुख- समृद्धि और आरोग्यता से भी छठ पूजा का व्रत जुड़ा हुआ है। इस व्रत का मुख्य उद्देश्य पति, पत्नी, पुत्र, पौत्र सहित सभी परिजनों के लिए मंगल कामना से भी जुड़ा हुआ है।
छठ पर्व की सांस्कृतिक परम्परा में चार दिन का व्रत रखा जाता है। यह व्रत भैया दूज के तीसरे दिन यानि शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि से आरंभ हो जाते है। व्रत के पहले दिन को नहा-खा कहते हैं। जिसका शाब्दिक अर्थ है स्नान के बाद खाना। इस दिन पवित्र नदी गंगा में श्रद्धालु स्नान करते हैं। वैसे तो यह पर्व मूल रूप से गृहिणियों द्वारा मनाया जाता है, लेकिन आजकल पुरुष भी इसमें समान रूप से सहयोग देते हैं।
छठ का पौराणिक महत्व अनादिकाल से बना हुआ है। रामायण काल में सीता ने गंगा तट पर छठ पूजा की थी। महाभारत काल में कुंती ने भी सरस्वती नदी के तट पर सूर्य पूजा की थी। इसके परिणाम स्वरूप उन्हें पांडवों जैसे विख्यात पुत्रों का सुख मिला था। इसके उपरांत द्रौपदी ने भी हस्तिनापुर से निकलकर गढ़ गंगा में छठ पूजा की थी। छठ पूजा का सम्बंध हठयोग से भी है। जिसमें बिना भोजन ग्रहण किए हुए लगातार पानी में खड़ा रहना पड़ता है, जिससे शरीर के अशुद्ध जीवाणु परास्त हो जाते हैं।
एक मान्यता के अनुसार छठ पर्व की शुरुआत महाभारत काल में हुई थी। जिसकी शुरुआत सबसे पहले सूर्यपुत्र कर्ण ने सूर्य की पूजा करके की थी। कर्ण भगवान सूर्य के परम भक्त थे और वो रोज घंटों कमर तक पानी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देते थे। सूर्य की कृपा से ही वह महान योद्धा बने। आज भी छठ में अर्घ्य दान की यही परंपरा प्रचलित है। छठ पर्व के बारे मे एक कथा और भी है। इस कथा के मुताबिक जब पांडव अपना सारा राजपाठ जुए में हार गए तब दौपदी ने छठ व्रत रखा था। इस व्रत से उनकी मनोकामना पूरी हुई थी और पांडवों को अपना राजपाठ वापस मिल गया था।
लोक परम्परा के मुताबिक सूर्य देव और छठी मईया का संबंध भाई-बहन का है। इसलिए छठ के मौके पर सूर्य की आराधना फलदायी मानी गई। छठ पूजा अथवा छठ पर्व कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी को मनाया जाता है। छठ से जुड़ी पौराणिक मान्यताओं और लोक गाथाओं पर गौर करें तो पता चलता है कि भारत के आदिकालीन सूर्यवंशी भरत राजाओं का यह मुख्य पर्व था। छठ के साथ स्कंद पूजा की भी परम्परा जुड़ी है। भगवान शिव के तेज से उत्पन्न बालक स्कंद की छह कृतिकाओं ने स्तनपान करा रक्षा की थी। इसी कारण स्कंद के छह मुख हैं और उन्हें कार्तिकेय नाम से पुकारा जाने लगा। कार्तिक से संबंध होने के कारण षष्ठी देवी को स्कंद की पत्नी देवसेना नाम से भी पूजा जाने लगा।
लोक आस्था के महापर्व छठ का हिंदू धर्म में अलग महत्व है। यह एकमात्र ऐसा पर्व है जिसमें ना केवल उदयाचल सूर्य की पूजा की जाती है बल्कि अस्ताचलगामी सूर्य को भी पूजा जाता है। सूर्य उपासना का यह पर्व कार्तिक महीने की चतुर्थी से सप्तमी तिथि तक मनाया जाता है। सूर्य षष्ठी व्रत होने के कारण इसे छठ कहा जाता है। मान्यता है कि छठ देवी सूर्य देव की बहन हैं और उन्हीं को प्रसन्न करने के लिए भगवान सूर्य की अराधना की जाती है। पर्व का प्रारंभ नहाय-खाय से होता है, जिस दिन व्रती स्नान कर अरवा चावल, चना दाल और कद्दू की सब्जी का भोजन करते हैं। नहाय-खाय के दूसरे दिन यानी कार्तिक शुक्ल पक्ष पंचमी के दिनभर व्रती उपवास कर शाम में रोटी और गुड़ से बनी खीर का प्रसाद ग्रहण करते हैं। इस पूजा को खरना कहा जाता है। इसके अगले दिन कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी तिथि को उपवास रखकर शाम को अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। इसके अगले दिन यानी सप्तमी तिथि को सुबह उदीयमान सूर्य को अर्घ्य अर्पित करके व्रत तोड़ा जाता है।
छठ पूजा के व्रत को जो भी रखता है। वह इन दिनों में जल भी नही ग्रहण करता है। इस व्रत को करने से सुख-समृद्धि और सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती है। इस पूजा वैसे तो मुख्य रुप से सू्र्य देवता की पूजा की जाती है, लेकिन साथ ही सूर्य देव की बहन छठ देवी की भी पूजा की जाती है। जिसके कारण इस पूजा का नाम छठ पूजा पड़ा। इस दिन नदी के तट में पहुंचकर पुरुष और महिलाएं पूजा-पाठ करते है। साथ ही छठ माता की पूजा को आपके संतान के लिए भी कल्याणकारी होती है।
(लेखक – रमेश सर्राफ धमोरा )
संजा पर्व: प्राचीन लोक परम्परासंजा पर्व: प्राचीन लोक परम्परा
श्रीमती शारदा नरेन्द्र मेहता
संजा पर्व का प्रारम्भ आश्विन माह की प्रतिपदा से या कई स्थानों पर भाद्रपद की पूर्णिमा से होता है। यह समय श्राद्ध पक्ष का भी रहता है। कुँआरी कन्याएँ इन दिनों में संध्या समय दीवार पर गोबर से लीप कर प्रतिदिन एक नई आकृति गोबर से ही बनाती हैं और फिर उस पर फूलों की पंखुड़ियांे को चिपका कर उसे सुन्दर स्वरूप प्रदान करती हैं।ऐसा कहा जाता है कि माँ पार्वती प्रतिपाद के दिन पीहर आई थी। सहेलियों ने उन्हें मनाने तथा मनोवांछित फल प्राप्त करने की इच्छा से यह उपक्रम किया। वे इस के द्वारा हँसी-ठिठौली तथा ताना-कशी करती थी और फिर पार्वती को प्रसन्न करने के लिये आरती करती थी। यही परम्परा आगे चलकर संजा के रूप में प्रचलित हुई। घर के बाहर की दीवार पर गोबर से लीप कर पूर्णिमा के दिन बांये हाथ पर चन्द्रमा तथा सीधे हाथ पर सूरज बनाया जाता है। मध्य में पाटला और पाँच पाँचें बनाये जाते हैं। पाटला भगवान सत्यनारायणजी का प्रतीक माना जाता है। कन्याएँ विभिन्न गीत गा कर आरती करती हैं यथा-गीत- संजा तू बड़ा बाप की बेटी तू खावे खाजा रोटी तू पेरे माणक मोती…… आदिपूर्णिमा के दिन एवं प्रतिपदा के दिन बनाई आकृति को निकाल कर एक टोकरी में रख दिया जाता है और गोबर से लीप कर नई आकृति बनाई जाती है। जो पंखे के रूप में होती है। यह पंखा कन्या का पीहर में आराम का प्रतीक है और ससुराल में बुजुर्गों की सेवा करने का।गीत- काजल टीकी लो भई काजल टीकी लो काजल टीकी लईने म्हारी संजाबई के दो……द्वितीया के दिन दूज का बिजौरा बनाया जाता है, जो भाई-बहन के प्यार का प्रतीक है। रक्षा बन्धन के दिन बहन भाई को पाटले पर बिठाकर तिलक लगाती है और आरती करती है। भाई के लिये मंगल कामना करती है। भाई को मिठाई खिलाती है। यह आकृति इसी प्यार का प्रतीक है। चाँद सूरज जी वीरा म्हारो बटुओ मंगई दो रे……..
तृतीया के दिन गाड़ी बनाई जाती है। मान्यता है कि इसमें बैठ कर संजा बाई अपने ससुराल जाती है-गीत- नानी सी गाड़ी रूड़कती जाय जीमें बैठा संजाबई, घाघरो घमकाता जाय चूड़लो चमकाता जाय……चतुर्थी को चैथ की चोपड़ मांडी जाती है। चोपड़ प्राचीनकाल में मनोरंजन का साधन थी। घर में महिलायें यह खेलती थी-गीत- म्हारा आंगन मंे केल उगी, केल उगी उगजो चोरासी डाली, उगजो चोरासी डाली…… पंचमी के दिन पाँच कुँवारे-कुँवारी बनाये जाते हैं। अनेक बुजुर्गों का कथन है कि अल्पायु में मृत परिजनों की आत्मा की शांति के लिय पंचमी का संजा पूजन किया जाता है। ससुराल में संजा ने तंग आकर अल्पायु मेें दम तोड़ दिया। कहते हैं कि वह चिड़ियाँ बनकर हर घर-आंगन में जा उतरी-गीत- एक तारो टूट्यो म्हारी संजा बाई उदास…….. संजा बाई का लाड़ा जी लुगड़ो लाया जाड़ो जी छठ को छाबड़ी बनाई जाती है। इसे अच्छे भाग्य का प्रतीक माना जाता है। संजा अच्छे खाते-पीते घर में जन्मी थी। ससुराल में उसे काफी दुःख झेलना पड़ा। सुख और दुःख का नाता हमेशा रहता है। यही बात कन्याओं को इससे सीखने को मिलती है-गीत – तमारा सासरिया से हाथी भी आया, घोड़ा भी आया। म्याना भी आया पालकी भी आई जाओ संजाबाई तम सासरिये…… सप्तमी के दिन स्वस्तिक (सातिया) बनाया जाता है। स्वस्तिक मांगलिक कार्य का सूचक है तथा भारतीय संस्कृति का प्रतीक है। कन्याएँ इसे बना कर अपने मंगलमय भविष्य की कामना करती है। संजा को लेने खोड़िया ब्राह्मण आया। उसी को सम्बोधित करते हुए सहेलियाँ गाती है-गीत- खुड़ खुड़ रे म्हारा खोड़्या बामण संजा के लेवा आयो म्हारी संजा को माथो छोटो टीकी क्यों नी लायो रेअष्टमी को आठ पंखुड़ियों वाला फूल गोबर से बनाया जाता है। इस आकृति के बारे में अनेक मान्यताएँ हैं। कुछ महिलायें इसे अष्ट तीर्थ पूजा का प्रतीक मानती हैं। कुछ बुजुर्ग महिलाएँ इसे अष्ट भुजाओं का प्रतीक मानती हैं। मालवा क्षेत्र के कुछ क्षेत्र में इसे सुहागिन के फूल का प्रतीक कहा जाता है- गाड़ी नीचे जीरो बोयो सात सहेलियाँ जी गाड़ी रूड़की कूपल फूटी सात…..नवमी के दिन डोकरा-डोकरी बनाये जाते हैं। कहा जाता है कि परिवार के बुजुर्गों की स्मृति का प्रतीक ही यह आकृति है। इससे यह शिक्षा प्राप्त होती है कि यौवन से वृद्धावस्था तक पति-पत्नी साथ निभाते हैं। उचित ही कहा गया है कि मतभेद भले ही हो जाये किन्तु मन भेद नहीं होना चाहिये- संजा तो मांगे हरियो हरियो गोबर कहा से लाऊं में हरो हरो गोबर, म्हारा वीरा तो …… दशमी को जलेबी की जोड़ की आकृति बनाई जाती है। जलेबी प्रेम, सौहार्द, स्नेह तथा व्यवहार में मिठास का प्रतीक है। एक कहानी के अनुसार संजा की सहेली जसोदा गरीब थी। उसके माता-पिता की मृत्यु हो चुकी थी। धर मके भैया भाभी थे। भैया तीर्थ गया था। भाभी से उसने कहा था कि जसोदा को श्राद्ध में भोजन पर बुला लेना। परन्तु उसे निमंत्रित नहीं किया गया था। उसके घर के बाहर एक बैल व एक कुत्ता बातचीत कर रहे थे। बातचीत का अर्थ था कि उसके घर के बाहर चारों ओर धन गड़ा है। जसोदा ने यह बात सुनी तो धन खोद दिया। उसकी गरीबी दूर हो गई। महलों में रहने लगी। भाई-भाभी बुलाने आये। बहन अच्छे गहनों कपड़ों में बैठी थी। पीहर वालों ने उसे भोजन पर बुलाया तो वह गाने लगी -गीत- जिमें मारी ठुस्सी जिमो मारी नथ जिमो मारी ओढ़णी, जिमो मारा भुजबंध अतल बतल की तौरिया ने कई बेतल की तलवार जी…… ग्यारस को केल बनाई जाती है। केल पूजा रूद्र पूजा का रूप है। मां पार्वती ने शिवजी को प्राप्त करने के लिये केल की पूजा की थी। आज भी कन्याओं के लिये केल पूजा का महत्व है। ग्यारस से किला कोट बनाया जाता है-गीत कोट पे बैठी चिड़कली उड़ाओ म्हारा दादाजी….. संजा को सासरो सागर में….. द्वादशी को संजा की आकृति को बन्दनवार का रूप दिया जाता है। किला कोट बनाने के साथ ही संजा की आकृति को गिराना बंद कर दिया जाता है। ग्यारस से अमावस्या तक आकृति को सुरक्षित रखते हैं। द्वादशी की बंदनवार इस बात की प्रतीक भी है कि संजा की सखियाँ अपने भाइयों के विवाह की प्रारम्भिक तैयारी कर रही हैं। वे गाती हैं- नानी सी आमली नीचे रुमझुम बाजा बाजे रे……..त्रयोदशी के दिन बिनोला बनाया जाता है। यह मान्यता है कि यह आकृति सास-बहू के बीच प्रेम एवं सामंजस्य स्थापित करने की प्रतीक है। सहेलियाँ गाती है कि- म्हारा कोठा पे कुण-कुण पोथी बाचे से भम्मरिया……..चतुर्दशी के दिन संजा बाई की डोली बनाई जााती है। यह डोली सखियों को यह दर्शाती है कि अब उनकी सखी संजा डोली में बैठकर बिदा होने वाली है। वे यह गीत गाती है- संजा का पाछे मेंदी को झाड़, मेंदी को झाड़ एक पŸाी चुनती जाय, चुनती जाय……. अमावस्या के दिन संजा का किला कोट पूर्ण हो जाता है। संजा का बिदाई का पल आ गया है। वह अपनी माँ से आग्रह करती है कि माँ पिताजी को मेरे सुसराल मुझे लेने के लिये भेज देना। माँ कहती है कि पिताजी बीजापुर के राजा हैं ‘‘उन्हें फुरसत नहीं’’ है। संजा कहती है कि माँ तुम आ जाना। माँ कहती है कि उसने रास्ता नहीं देखा, तो संजा का उŸार होता है कि वह रास्ते में अपने गहने गिराती जावेगी तो माँ तुम उनको देखकर मेरे ससुराल आ जाना। माँ कहती है कि सहेलियाँ गहने उठा लेंगी। मूँग डालेगी तो मोर-मोरनी चुग लेंगे। इस बात-चीत से संजा समझ जाती है कि उसे सुसराल में ही रहना है। ऐसा कथन है कि ससुराल-पीहर की इसी उहापोह में संजा बाई अल्पायु में ही दिवंगत हो जाती है। वृद्ध महिलाओं की मान्यता है कि कन्याओं को मौत का आलिंगन करने के बजाय सहनशीलता को धारण करके अपने ससुरालवालों से निभा कर उन्हें अपना बनाने का प्रयत्न करना चाहिये। सोलह दिन बनाई गई आकृतियों को एक टोकरी में इकट्ठा किया जाता है। उस स्थान को गोबर से लीप कर स्वस्तिक बनाया जाता है। सभी कन्याएँ संजा की आकृति को निकालने के पूर्व आरती करती है। प्रसाद वितरण होता है और उसे नदी या तालाब में विसर्जित किया जाता है तथा यह गीत गाती है- संजा तू थारा घर जा, के थारी माँ मारेगी के कूटेगी, के डेली पे दचकेगी चाँद गयो गुजरात के हिरणी का बड़ा-बड़ा दाँत के छोरा-छोरी डरपेगा भई डरपेगा…..जिन कन्याओं का विवाह संस्कार हो जाता है वे इस संजा व्रत का उद्यापन करती हैं। पंडितजी पूजन विधि सम्पन्न करवाते हैं। बाँस की रंगीन सोलह छाबड़ियों या स्टील की कटोरियों में सुपारी, लौंग, इलाइची, फूल, धानी, चने, पैसे आदि रखकर पूजन करते हैं। ये कन्याओं को भेंट में दे दी जाती है। ब्रजभूमि में इन सोलह कटोरियों में पेड़े भरकर ससुराल पहुँचाया जाता है। संजा की इस बिदाई की बेला में सहेलियाँ भावुक हो जाती हैं और आपस में गले मिलती हैं। भाभियाँ भी गाती है- अब कौन भाई बाग लगाएगा और कौन सी बेन उसे सींचेगीप्राचीन समय में संजा की प्रतिदिन की आकृतियों पर गुलतेवड़ी के फूलों की पंखुड़ियों को चिपकाया जाता था। श्राद्ध पक्ष में ये फूल बहुतायत से उपलब्ध होते थे। ये सफेद, नीले, बैंगनी, टमाटरी लाल आदि कई रंगों में होते थे। आज भी कहीं-कहीं ये उगते दिखाई देते हैं। किला कोट प्रारम्भ करने के दिन से रंगीन चमकीली पन्नियाँ चिपकाई जाती है। छोटे मकान, समयाभाव, गोबर के प्रति घृणा, प्लास्टिक पेन्ट से कलर की गई दीवारें तथा सामाजिक विचारधारा में परिवर्तन, शिक्षा का अभ्युदय आदि कुछ ऐसे बिन्दु हैं, जिनके कारण यह कलात्मक पूजा-विधि विलुप्त सी दिखाई देती है। महानगरीय संस्कृति में तो इसे पहचाना भी नहीं जाता। हाँ, छोटे नगर, ग्राम एवं कस्बों में तो फिर भी यह कुछ हद तक जीवित है। गोबर के स्थान पर पीली मिट्टी का उपयोग भी लड़कियाँ करती हैं ताकि उनके हाथों में गोबर की बदबू नहीं आये क्योंकि यह गाय माता का अपशिष्ट पदार्थ ही तो है! आज-कल बाजार में संजा बाई की सम्पूर्ण आकृतियाँ किला कोट सहित उपलब्ध है, जो रंगीन कागज तथा चमकीली पन्नियों से निर्मित की जाती है।संजा बनाने की कला भी बालिकाओं के लिए जीवन का सन्देश देती है। उनमें लोक व्यवहार का सन्देश प्रेषित करती है। प्राचीन समय में न रेड़ियो थे, न टेलीविजन और न ग्रामीण अंचलों तक बालिका शिक्षा। संजा के हंसी-ठिठौली करते शिक्षाप्रद गीत तथा बनाई जाने वाली शिक्षाप्रद आकृतियाँ जीवन की वास्तविकता को उजागर करती थी, जो कन्याओं के लिए तत्कालीन परिस्थितियों में आवश्यक थे। संजा के लोकगीत मानव संवेदनाओं तथा मालवा की लोक संस्कृति से ओत-प्रोत हैं। ऐसा कथन है कि संजा पर्व मालवा में ही नहीं देश के अन्य प्रान्तों में भी अलग-अलग नामों से मनाया जाता है यथा मेवाड़ में सभन्या, राजस्थान में संझ्या, हरियाणा में सांझी-धूंधा, ब्रज में सांझी, बुन्देलखण्ड में संजा-गुजरी तथा महाराष्ट्र में बुलाबाई के नाम से जाना जाता है। डाॅ. श्याम परमार ने संजा पर शोध किया है। उनके कथनानुसार संजा पर्व का उद्गम अजमेर सांगानेर से ही संभवतः हुआ है। धुमन्तु जातियों के एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त में जाने के कारण इसके नाम एवं स्वरूप में परिवर्तन होते रहे। यह भी माना जाता है कि अपने शील तथा कौमार्य की रक्षा के लिए भी कन्याएँ इस व्रत को करती थीं।
अपनी लेखनी को विराम देते हुए मैं इतना तो अवश्य लिखूँगी कि आज भी मालवांचल के ग्रामीण इलाकों में (पितृपक्ष) में घूमते हुए ग्राम्य कन्याओं द्वारा घरों की दीवार पर गोबर से बनाई गई संजाबाई की विभिन्न आकृतियाँ दिखलाई देती हैं और गीतों की अनुगूँज वातावरण को भावुक बना देती है। आज की जो वृद्ध महिलाएँ हैं उन्हें भी एक बार तो अपनी सखी-सहेलियों के साथ बिताया हुआ बचपन याद आ ही जाता है और कवयित्री सुभद्रा कुमारी चैहान की लिखी गई कविता की ये पंक्तियाँ-‘‘बार-बार आती है, मुझको मधुर याद, बचपन तेरी।’’
पार्वण श्राद्ध पार्वण श्राद्ध
डा.पी.एल. गौतमाचार्य
श्राद्ध क्यों : सनातन हिन्दू धर्मावलम्बियों ने पूर्व पुरूषों के प्रति आभार, आदर और श्रद्धा व्यक्त करने के लिए अपने धर्म शास्त्रों के निर्देशानुसार जिस विधि को अपनाया है। उसका नाम है श्राद्ध। श्राद्ध शब्द की उत्पत्ति श्रद्धा से हुई है। पुलस्त्य स्मृति वायु पुराण श्राद्ध तत्व आदि ग्रंथों में इस कर्म को इन शब्दों में परिभाषित किया है।श्लोक : श्रद्धया क्रियते यस्याच्छाद्धं तेज प्रकीतित:।अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञ भाव से की जाने वाली यह क्रिया जब लोगों के प्रवाद और अज्ञानवश तथा पापा चाहं की अभिवृद्धि के कारण शनै:-शनै: लुप्त हो रही है और हिन्दू समाज गीता में अर्जुन की आशांकानुरूप लिखा ‘लुप्त पिण्डोदक क्रिया’ की स्थित है और प्रयासरत है। श्राद्ध क्रिया कि क्षीण होने के कारण कर्मकाण्डी विद्वानों का अभाव भी एक महत्वपूर्ण कारण है। आधुनकि परिवेश में जीविका के लिए व्स्त दिनचर्या के साथ जीने वाले निरीह गिरीह मानव को श्राद्ध कर्म की घंओ लबी क्रियाओं का निवाहना संभव नहीं है। दूसरी ओर कर्मकाण्डी विद्वानों की संख्या दिनों दिन कम होती जा रही है। अत: सनातन हिन्दू धर्म की इस पवित्र परिपाटी को जीवित रखने के प्रयास होने चाहिए। श्राद्ध कर्म में श्राद्ध (श्रद्धा ही प्रमुख है) इस बात को श्राद्ध कर्ता अपने मन में भली प्रकार बैठाकर ही श्रद्धापूर्वक पितरों का श्राद्ध करें तो उसका अंश भाग हमारे पितर प्रसन्नता पूर्वक ग्रहण करते हैं और अपने वंशजों की सुख समृद्धि को आशीर्वाद प्रदान करते हैं। अनेक गृथों में यह बात अति विश्वासपूर्वक कही गई है। श्लोक : आयु: पूजां धनं विद्यां मोक्षं सुखानि च। प्रयच्छन्ति तथा राज्यं प्रीतानणां पितामह:।।अर्थात श्राद्धकर्ता की धन राज्य ज्ञान स्वर्ग मोक्ष जाति स्मारिता (स्मरण) आदि सब प्राप्त हो जाते हैं। वायु पुराण में कहा गया है – श्लोक : पूजा पुष्टि: स्मृति मेघा राज्य मारोग्य एवंच। पितृणां हि प्रसादेन प्राप्यते सुमहात्मनाम।। वायु 73/71वंश की सुख समृद्धि के लिए भी श्राद्ध किया अत्यन्त आवश्यक कर्म है। ‘बाढ़हि पूत पिता के धर्मा’ इस कहावत के अनुसार पितृ ऋण से मुक्ति का भी एकमेव साधन श्राद्ध कर्म है। फिर हमारी संतान भी तो थोड़ा बहत हमारा ही अनुकरण करेगी। अत: श्राद्धकर्म से विरति रहने वाले हिन्दू संस्कारों की जड़ें तो काटते ही हैं। वे अपने वंश के लिए विपत्तियां ही मोल लेते हैं। श्राद्ध कल्पलता, श्राद्ध चन्द्रिका मार्कण्डेय पुराण आदि ग्रन्थों में इस संबंध में स्पष्ट चेतावनी दी गई है। श्लोक : न तत्र वीरा जायन्ते आरोग्यं न शतायुष:। न च श्रेयाधिमच्छन्ति पत्र श्राद्धं विवजितं।।अर्थात जिस गृह में जहां श्राद्ध नहीं होता, वहां दु:ख क्लेश रोग आदि होते हैं और वायु का नाश होता है और श्रेय प्राप्त नहीं होता। पितृगण देवताओं से भी अधिक कृपालू होते हैं और वंशजों की श्रद्धा से प्रसन्न होते हैं। मृतात्मा की वार्षिक तिथि पर एकोदिष्ट तथा महालय एवं पर्व पर ‘‘पार्वण’’ विधि करना चाहिये। यदि इतना करना संभव न हो तो संकल्पित श्राद्ध तथा तर्पण अवश्यक करना चाहिए। आचमन प्रणायामादि : कुशासन (आसन) पर पूर्व दिशा की ओर मुंह करके बैठें। हाथ की अनामिका अंगुली में ती कक्षाओं से बनी हुई तथा दाहिने हाथ की अंगुली में दो कुशाओं से बनी हुई पवित्री (कुशा की बनायी हुई एक प्रकार की अंगूठी) धारण कर श्राद्धकर्ता आचमन व प्राणायाम करके तीन कुशाओं को सीधी बैठकर गांठ लगा दें और उसके अग्र भाग को पूर्व दिशा की ओर करके भूमि पर रख दें। तत्पश्चात श्राद्ध के निमिक्त बनाये पकवान और सामग्री को नीचे लिखं मंत्र से पवित्र करें। ओम् अपवित्र: पवित्रो वा सर्वास्था गतो अपिवा। या स्मेरत्पुन्डरी काक्षं स वाहयाभ्यान्तर: शुचि:।।इसके बाद बायें हाथ में पीली सरसों को दाहिने हाथ से चारों दिशाओं तथा भूमि व आकाश में निम्नांकित मंत्र पढ़ते हुए फेंक दें। ओम् प्राच्ये नम: (पूर्व में)। ओम् अवाच्यै नम: (दक्षिण में) ओम् प्रतीच्याद्धे नम: (पश्चिम में), ओम् प्रदीच्याये नम: (उत्तर में) ओम् अन्तरिक्षाय नम: (ऊपर) ओम् भूम्यै नम: (नीचे), इसके बाद जवा तिल एवं पुष्पों से तीन बार भूम्यै नम: बोलते हुए पृथ्वी का पूजन करें। पुन: गायत्री मंत्र तथा निम्नांकित मंत्र का तीन बार जाप करें। ओम् देव लभ्य: पितृ भ्रयश्च महायोगिभ्यज एव च। नम: स्वाधायै स्वाहार्य नित्य मेव नमो नम:।।मंत्र जाप के बाद श्राद्ध का प्रतिज्ञा संकल्प करें। संकल्प:- हमारे धार्मिक कार्यों में संकल्प का बडत्रा महत्व है। यह एक प्रकार की प्रतिज्ञा है। जिसे कर्ता अपने वंश, गोत्र व नाम आदि के उच्चारण के साथ एक निश्चित तिथि व समय पर करने की घोषणा करता है। श्राद्ध के लिये संकल्प का उच्चारण इस प्रकार करें। ओम् अध विक्रम संवत सरे (अमुक) संपख्यके, अमुक मासे अमुक पक्षे अमुक तिथां अमुक वासरे अमुक गोत्रस्य अस्मत पितृ: सांकल्पिक श्राद्ध तदमत्वे न बलि बैश्य खोख्ये पवादि कर्म च करिश्यते।श्राद्ध के दिन किसी प्रकार का रोग दोष क्रोध असत्य भाषण या उद्दंता का आचरण न करे। मनृस्मुति में लिखा है।श्लोक : अश्रून गमयति प्रेतान, कोपोडरीननृतं शुन:।पादस्पर्शस्तु रक्षांसि, दुष्कृतीत वधून नम:।।वृहद पारासर स्मृति में श्राद्ध कर्म में उपयुक्त न होने वाले पुष्पों के नाम बताये गये है। विल्व पत्र, मालती चंपा, नागकेशर,जबा कनेट कचनार, केतकी और समस्त रक्त पुष्पों को श्राद्ध पूजन में कदापि नहीं लेना चाहिए अन्यथा उस पूजन को राक्षस गृहण कर लेते है। श्राद्ध के समय पकवान आदि लोहे के पात्र में न रखें, तथा लोहे के पात्रों को किसी काम में न लेवे। श्राद्ध भोजन के निमिक्त ब्राम्हण को निमंत्रित करते समय भी कुछ सावधानियां बरतनी चाहिए। मतृ स्मृति में लिखा है की लंगड़ा, काना, दाता का दास, अंगहीन और अधिक अंगवाला ब्राम्हण भी श्राद्ध भोज के लिए उपयुक्त नहीं है। इसके लिए उपयुक्त ब्राम्हणों को एक दिन पूर्व ही निमंत्रित कर देना चाहिए। श्राद्ध के दिन प्रात: प्रसन्न मन से अपने पितरों माता-पिता का श्रद्धा पूर्वक स्मरण करते हुए नदी अथवा कुंए के जल में स्नान करके उत्साह पूर्वक श्राद्ध किया उत्साह पूर्वक करना चाहिए।
प्रतिहिंसा का प्रत्युत्तर क्षमा में
हर्षवर्धन पाठक
व्यक्तिगत जीवन हो या सामाजिक कर्तव्यों का निर्वहन, जीवन में ऐसे अनेक प्रसंग है, जहां किसी व्यक्ति या समुदाय को किस प्रकार कार्य व्यवहार करना चाहिये, इस संबंध में भारत ने अनेक अनूठे सिद्धांत विश्व को दिये है। प्रति वर्ष भाद्रपद माह होने वाला क्षमावाणी पर्व को सही अर्थों तथा सन्दर्भों में ग्रहण किया जाए तो क्षमावाणी के सदियों पुराने पर्व में विश्व की वर्तमान में सबसे बड़ी समस्या-आतंकवाद का समाधान मिल सकता है।
क्षमा का महत्व यद्यपि अन्य धर्मों में भी बताया गया है। लेकिन यह भारत, की ही विशिष्ट सांस्कृतिक देन है कि इसे सदियों से एक सामाजिक उत्सव के रुप में मनाया जा रहा है। वैसे अनेक धर्मग्रन्थों में क्षमा को अतुलनीय महत्व दिया गया है। महर्षि वेद व्यास का यह श्लोक इस संदर्भ में उल्लेखनीय है:-
क्षमा ब्रम्ह, क्षमा सत्यं, क्षमा भूतं च भावि च।
क्षमा तप: क्षमा शौचं, क्षमयेद् धृत जगत।
क्षमा ब्रम्ह के समान है और क्षमा ही सत्य का प्रतिमान है। क्षमा में भूत ओर भविष्य दोनों विद्यमान होते हैं। क्षमा में तपश्चर्या और पवित्रता का वास होता है। क्षमा ने संपूर्ण जगत को धारण कर रखा है।
यह सही भी है कि वास्तव में क्षमा से बढ़कर तपस्या भाव नहीं हो सकता। यदि किसी से अहित हुआ है और क्षति पहुंची है तो उसके इस कृत्य को उदार भाव से क्षमा करना और उसके प्रति किसी प्रकार का प्रतिकार, द्वेष भाव या पूर्वाग्रह न रखना मानसिक तपस्या का ही प्रतिफल होता है। विशेष रुप से यदि आप प्रतिकार करने, प्रतिशोध लेने या अपराधी को दंडित करने के लिये सक्षम होने तथा आपके के साथ जन समर्थन होने के बावजूद दोषी व्यक्ति को या समाज को क्षमा कर सकते हैं, तो ऐसी क्षमा भावना मानसिक दृढ़ता, विराट हृदय और अहिंसा भाव से ही संभव हो सकती है। ऐसी क्षमता कोई तपस्वी ही दे सकता है। यहाँ तपस्या से आशय शारीरिक कष्ट साधना से नहीं है अपितु उस तपर्श्या से है, जो आपको राग, विराग या पूर्वाग्रह से ऊपर उठने तथा उस मनोबल तथा साधना से है जो आपके प्रतिशोध लेने के लोभ से पृथक करने तथा करुणा और मानवता के लिये कठोर आत्मसंयम से बनती है। वास्तव में मानसिक विकारों तथा मनोभावनाओं पर नियंत्रण रख पाना भी एक तपस्या ही होती है।
यह लोकोक्ति बहुत प्रचलित है- क्षमा वीरस्य भूषणम््। प्रतिशोध लेने में सक्षम व्यक्ति यदि किसी के प्रति क्षमाशील हो, तो यह उसकी वीरता, उसके साहस, उसके औदार्य का प्रमाण है। अक्षम व्यक्ति द्वारा क्षमा, प्रदर्शन का कोई महत्व नहीं होता है।
यह कहा जाता है कि व्यक्ति की सबसे बड़ी कमजोरी ये चार दुर्गण होते हैं- काम, क्रोध, मद और लोभ। इन दुर्गणों पर नियंत्रण के लिए मानसिक दृढ़ता, तथा तपस्या भाव जरुरी होता है। क्षमा भावना इसी मानसिक तपस्या से अर्जित की जा सकती है। यह मात्र संयोग नहीं, अपितु भारतीय संस्कृति की अद्भुत विशेषता है कि पर्यूषण पर्व एवं गणेशोत्सव एक ही समय में होते हैं। ये दोनों सामाजिक उत्सव अद्भुत साम्य लिये है। श्री गणेश की अष्ट विनायक के रुप में आठ अवतारों में पूजा होती है। उनके ये आठ अवतार वास्तव में प्रत्येक व्यक्ति में विद्यमान आठ द्रष्प्रवृत्तियों के शमन और नियंत्रण का प्रतीक होते है। जैन धर्म के दशलक्षण पर्व तथा क्षमावाणी पर्व भी इन्हीं मानवीय कमजोरियों पर विजय के सांकेतिक होते है।
श्री गणेश ने अष्ट विनायक के रुप में जिन असुरों को पराजित किया वे है- लोभासुर, मोहासुर, कामानुसार, मदासुर, क्रोधासुर, ममतासुर तथा अभिमानासुर। लोभ, मोह, काम, मद मत्सर, क्रोध, ममता और अभिमान के मनोविकार ही मानवीय दुर्बलताओं के जनक होते है। इन पर नियंत्रण कर ही व्यक्ति महान बनता है। कथाओं के अनुसार श्री गणेश ने इन आठ असुरों को पराजित किया, लेकिन उनका बध नहीं किया। इनके द्वारा क्षमा याचना करने पर प्रत्येक को पाताल भेज दिया। गणेश के अष्ट विनायक रुपों से जुड़ी इन कथाओं का संदेश यही है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी मानसिक कमजोरियों पर नियंत्रण रखना चाहिये ।इन मनोविकारों पर विजय मानसिक दढ़ता तथा तपस्या से ही प्राप्त हो सकती है। क्षमा-भावना भी इसी का प्रतिरुप है।
क्षमा का महत्व बताने वाला यह दोहा बहुधा कहा-सुना जाता है:-
जहाँ दया तंह धर्म है, जहां लोभ पाप।
जहाँ क्रोध तह काल है, जहां क्षमा तंह आप।
स्पष्ट रुप से यहां ”आप“ का आशय ईश्वरीय अनुभूति से है। यह ईश्वरीय अनुभूति हृदय की चिशालता, औदार्यभाव तथा मानसिक दृढ़ता और साधना से प्राप्त होती है, जो क्षमाशीलता के ही गुण होते है।
ईसाई धर्म ग्रंथों में भी क्षमता भाव को बहुत महत्व दिया गया है। जब ईसा मसीह को सूली पर चढ़ाया जा रहा था तब भी उनके मन में उन व्यक्तियों के मन में दया, करुणा तथा क्षमा के भाव थे जो उन्हें दंडित कर रहे थे। सूली पर चढ़ाये जाते समय उन्होंने कहा कि हे, ईश्वर इन्हें क्षमा करना, इन्हें नहीं मालूम कि ये क्या गलती करने जा रहे है।
इसी क्षमा भाव का प्रदर्शन भगवान श्रीकृष्ण ने उनके पैर के तलुवे में बाण मारने वाले शिकारी के प्रति किया था।
जहां क्षमा भाव की उदारता तथा बड़प्पन नहीं होता वहां प्रतिहिंसा की भावना पनपती है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने भी प्रतिहिंसा तथा क्रोध की वर्जना की है। गीता के सोहलवें अध्याय का यह श्लोक इस संदर्भ मेंउल्लेखनीय है:
तेज: क्षमा धृति: शौचमद्रोहो नातिमानिता।
भक्ति सम्पद: दैवीमभिजातस्य भारत।
श्रेष्ठ मनुष्य के गुणों की चर्चा करते हुए श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि तेजस्विता, क्षमा धैर्य व्यवहार में शुद्धि किसी के प्रति शत्रुभाव तथा अभिमान का अभाव वे सद्गुण है जो दैवी प्रकृति लिये पैदा हुए व्यक्ति की विशेषता होते है।
जैन धर्म में तो क्षमा भाव को इतना महत्व दिया गया है कि प्रत्येक वर्ष क्षमा पर्व मनाया जाता है। इस अवसर पर जाने या अनजाने में भी किसी को अपने कारण दुख या क्षति के लिये क्षमा याचना प्रत्येक व्यक्ति समाज के हर व्यक्ति से करता है। अनजाने में ही किसी को दुख के लिये क्षमा-याचना का यह भाव ही आतंकवादी प्रवृत्ति का समाधान प्रस्तुत करता है।
यह क्षमा पर्व भारतीय संसकृति में निहित अहिंसा का श्रेष्ठ प्रतीक है। यह वास्तव में आत्मशुद्धि तथा तपस्या का एक मार्ग है जो प्रतिवर्ष आयोजित क्षमा पर्व लोगों को दिखाता है।
पिछले कुछ वर्षो में विश्व के अनेक भागों में आतंकवाद, हिंसा और प्रतिहिंसा, धार्मिक या साम्प्रदायिक अभिमान की बढ़ती हुई प्रवृत्तियों के कारण हिंसा हो या मध्य एशिया, अफ्रीकी आदि विभिन्न देशों में आतंकवादी हिंसा की घटनाओं में प्रतिमाह सैकड़ों निरपराध व्यक्तियों की मृत्यु की वीभत्सता ने क्षमा पर्व का महत्व बार-बार रेखांकित किया है। यूरोप तथा अमेरिकी महाद्वीपों के देश भी हिंसा-प्रतिहिंसा की इस दुखद प्रवृत्ति से बचे नहीं है।
यह कहावत है कि दण्ड में क्षाणिक उल्लास हो सकता है लेकिन शांति नहीं होती। जबकि क्षमा में शांति भी है और अकूत आनन्द भी। आतंकवादी हिंसा में लिप्त व्यक्तियों को यह समझना चाहिये कि हिंसा और आतंक से न तो विजय प्राप्त होती है और न ही आनन्द।
विश्व का कोई धर्म प्रति हिंसा प्रतिशोध और जीव हत्या की शिक्षा नहीं देता है। इसके विपरीत भूलो और माफ करो तथा जियो और माफ करो तथा जियो और जीने दो का सिद्धांत बार-बार सभी धर्म ग्रन्थों ने दुहराया है। इसके बावजूद आतंकवादी हिंसा की बढ़ती घटनायें यही संकेत देती हैं कि उग्रपंथी तत्व क्षमाशीलता को अंगीकार नहीं कर सके है। विश्व व्यापी आतंकवादी हिंसा का एक कारण ग्यारहवीं बारहवीं शताब्दी में येरुशलम पर कब्जे के लिये दो सौ वर्षों तक दो धार्मिक सम्प्रदायों में हुई ऐतिहासिक लड़ाई भी है। लगभग आठ सौ वर्ष बाद भी संघर्ष का मूल कारण भी वास्तव में येरुशलम पर अधिपत्य नहीं अपितु अभिमान और प्रतिहिंसा की प्रवृत्ति ही है। इसका समाधान क्षमा-पर्व की सदियों पुरानी परम्परा में सम्मिलित मूल भावना में से मिल सकता है। जहां भी परस्पर तनाव, संघर्ष, क्रोध तथा प्रतिहिंसा की प्रवृत्ति विवाद के विभिन्न पक्षों में हो, तो उन्हें यह समझना होगा कि हिंसा और प्रतिहिंसा से आज तक किसी विवाद का समाधान नहीं निकला है। इसका समाधान परस्पर क्षमाशीलता के आचरण से ही निकल सकता है।
उत्तम आकिन्चन्य, ममता दुख की खान
विजय कुमार जैन
बाहर के पत्थर फेंकने से काम नहीं चलेगा, बाहर के बोझ के साथ साथ भीतरी बोझ भी उतारना जरूरी है। जव तक चित्त पर काम, क्रोध, लोभ और मोह के पत्थरों का बोझ है, तब तक चेतना का ऊध्र्वारोहण संभव नहीं है। चेतना के ऊध्र्वारोहण के लिये बाहर और भीतर से हल्का होना जरूरी है इसी हल्केपन का नाम है- आकिन्चन्य । न किन्चनम् अकिनचनम् भावत आकिन्चन्यम् । मेरा कुछ भी नहीं है। इस प्रतीति का नाम आकिन्चन्य है।
आकिन्चन्य धर्म का स्वरूप निर्दिष्ट करते हुए आचार्य अकलंक देव ने लिखा है अध्यात्म की साधना के लिये ममत्व का त्याग अनिवार्य है। क्योंकि ममता ही दुख की खान है। हमारे मन में पलने वाली ममता हमे बहिर्मुखी बनाती हैं वहिर्मुखता दुख का मूल कारण है। वह जीव ममता के कारण बॅधता है। और ममता को जीतने से मुक्त होता है अतः सर्वप्रथम हमे निर्ममत्व होने का प्रयत्न करना चाहिये । जिस दिन यह बोध जग जायेगा कि जहाँ जी रहा हूॅ वह मेरा नहीं है, जिनके बीच जी रहा हूँ वे मेरे नहीें हैं। उसी क्षण आकिन्चन्य की प्रतीति हो जायेगी।
शरीर के साथ-साथ मनुष्य को सम्पत्ति के प्रति भी बड़ा प्रबल मोह होता है सम्पत्ति शाश्वत नहीं है। जिस सम्पत्ति के पीछे मनुष्य स्वयं को विपत्ति में डालता है, रात-दिन जिसकी चिन्ता में अनुरक्त रहता है, वास्तव में वह उसकी है ही कहाँ ? आचार्य शुभचन्द्र कहते हैं मैं आकिन्चन्य हूँ यह प्रतीति कर लो, तीन लोक के अधिपति बन जाओगे । सच में जीवन धन से बडा कोई धन नहीे है। जगत में सबसे मूल्यवान जीवन है। जीवन के रहते ही जगत के पदार्थो का मूल्य है। जीवन के विनष्ट हो जाने के बाद उनका क्या मूल्य है? जेा अपनी आत्मनिधि केा जान लेता है, जगत के जड़ वैभव से उसे लगाव नहीे रहता । एकत्व भावना में कहा है संसार के सारे संबंध स्वार्थ पर टिके हैं। यर्थाथ में कोई किसी का नहीे है। एकत्व की प्रतीति ही आकिन्चन्यता की उपलब्धि है। वस्तुतः संसार में कोई किसी का नहीं है। संसार का हर व्यक्ति अकेला है। यहाँ की हर वस्तु और हर व्यक्ति अनाथ हैै कोई किसी का नाथ और साथ नहीं है। कोई चाहे भी तो किसी का साथ नही है। कोई चाहे भी तो किसी का साथ नहीं दे सकता । कोई व्यक्ति कितना भी आत्मीय क्येां न हो, यदि उसके सिर में दर्द हो तो वह उसके दर्द के प्रति सहानुभूति तो प्रकट कर सकता है, पर उसके दर्द को बॉंट नहीं सकता । संसार के प्रत्येक प्राणी को अपने-अपने कर्मो के अनुसार सुख-दुख भोगना पड़ता है।
संवेग और वैराग्य भावों की वृद्धि के लिये संसार और शरीर की नश्वरता और भोगों की असारता का चिन्तन करते रहो। ममत्व अपने आप क्षीण होगा। एक बार संसार की असारता समझ लेने पर फिर वह अपनी और खींच नहीं सकता । ममत्व और आसक्ति से बचना चाहते है तो सदैव इन पंक्तियों का ध्यान दें।
संसार शोकमय है, जीवन भोगमय है, काया रोगमय है, संबंध वियोगमय है, साधना उपयोगमय है।
राजनीति में धर्म और मर्यादा हो तो रामराज – अधर्म और अमर्यादित आचरण हो तो महाभारत
सनत जैन
सामाजिक और आर्थिक विषमता, अनादि काल से आज तक बनी हुई हैं। यह हमेशा बनी रहेगी। सामाजिक व्यवस्था और मानवीय आधार पर देखा जाए, तो आर्थिक रूप से पिछड़े और कमजोर वर्ग के लोगों, शारीरिक एवं मानसिक रूप से असमर्थ लोगों को सहायता करने से उनका जीवन बेहतर बनाने से मानव समाज मजबूत होती हैं। मुनि श्री प्रमाण सागर जी का मानना है, कि भगवान महावीर ने सब को एक दृष्टि से देखने का संदेश दिया है। केवल मानव ही नहीं, 1 इंद्रिय जीव से लेकर 5 इंद्रिय जीवो को समान रुप से जीने का अधिकार, उनके प्रति संवेदना, सहानुभूति, सामाजिक आर्थिक विषमता के साथ प्रकृति जन्य वनस्पति को भी समानता के साथ जीने का अधिकार मिले। यह भगवान महावीर का संदेश था।
वर्तमान में मानवीय संवेदना लुप्त होती जा रही हैं। कमजोर लोगों के साथ सामाजिक और आर्थिक विषमता को दूर करने के स्थान पर, दोहरा चरित्र सामाजिक एवं राजनैतिक व्यवस्था में देखने को मिल रहा है। जिसके कारण मानव समाज में भौतिक सुख सुविधाएं और निजी स्वार्थ को लेकर मानव समाज में आडंबर युक्त धर्म, और धार्मिक आयोजन हो रहे हैं। जिसके कारण भारत जैसे धार्मिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक देश में अपराधिक, अमानवीय एवं असंवेदनशील मानव समाज का निर्माण हो रहा है। भारतीय समाज के लिए यह चिंता का सबसे बड़ा कारण है।
परम पूज्य प्रमाण सागर जी का मानना है, कि धार्मिक आयोजनों में आडंबर नहीं होना चाहिए। हर व्यक्ति में सांस्कृतिक और मानव श्रेष्ठता का गुण होना चाहिए। प्रतिकूलता में भी अनुकूलता खोजने की प्रवृत्ति होनी चाहिए। सुंदर देखें, सही सोचें, सही करने का प्रयास करें। इससे स्वयं सुखी होंगे, और आसपास के लोग भी सुखी रह पाएंगे।
प्रमाण सागर जी का मानना है, राजनीति मैं सक्रिय राजनेताओं में यदि धार्मिक प्रवृत्ति है, तो उससे राम राज्य की स्थापना होगी। राजनेता और राजनीति में यदि स्वार्थ और अधर्म का प्रवेश हो जाता है, तो वहां पर महाभारत शुरू हो जाता हैं। उनका मानना है कि प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में स्वयं का अंकुश होना अत्यंत आवश्यक है। धर्म समाज को अनुशासित करता है। राजनीति और राजनेताओं को जनता के प्रति उत्तरदाई बनाता है। बेहतर राजा और बेहतर राजनीति के लिए धर्म का अंकुश होना अति आवश्यक है। तलवार के जोर से, धर्म किसी पर लादा नहीं जा सकता है। पर्युषण पर्व के 10 दिन जैन समाज के लोग लोभ क्रोध मोह माया,,,, जैसी प्रवृत्ति को नियंत्रित करने के लिए 10 दिन धर्म का पालन करते है। अपनी क्रियाओं को बेहतर बनाने के लिए उन पर नियंत्रण करने के लिए उपवास इत्यादि का आयोजन कर अपनी आत्मशक्ति और आत्म चेतना को बेहतर बनाते हैं। दशलक्षण पर्व क्षमा का पर्व भी है। यह एक ऐसा पर्व है, जहां व्यक्ति अपनी स्वयं की आलोचना करते हुए अपनी गलतियों को ना केवल स्वीकार करता है। वरन् वह दूसरों से क्षमा मांगकर और स्वयं दूसरों की क्षमा करके अपनी आत्मशक्ति को बेहतर बनाता है। जिससे उसका जीवन सुखमय होता है। वह अपने परिवार, रिश्तेदार, समाज और देश के लोगों को सुखी बनाने में मानव जीवन का बेहतर उपयोग करता है। लोक और परलोक में अपनी गति को उच्चतर बनाता है। मुनि प्रमाण सागर जी का मानना है, कि मनुष्य को दोहरे आचरण से बचना चाहिए। सामाजिक, धार्मिक एवं संविधान प्रदत्त अधिकारों और कर्तव्यों का पालन करते हुए मनुष्य जीवन को सफल बनाना चाहिए। क्योंकि यह जन्म बड़ी मुश्किल से मिलता है।
परिचय
मुनि श्री प्रमाण सागर जी का जन्म 27 जून 1967 को झारखंड के हजारीबाग में हुआ था। मात्र 17 वर्ष की आयु में 4 मार्च 1984 को छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव में उन्होंने वैराग्य लिया था। 4 साल बाद 31 मार्च 1988 को आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने सोनागिरी मध्यप्रदेश में उन्हें मुनि दीक्षा से दीक्षित किया। बहुत कम समय में उन्होंने जैन समाज के साथ-साथ युवाओं और अन्य समाज के लोगों में अपने ज्ञान, ध्यान, तप और विचारशीलता के माध्यम से लाखों लोगों के दिलों-दिमाग में अपना असर डाला है। जैन समाज से ज्यादा, उनके अन्य समाज में श्रावक हैं। जो लगातार उनके आचार विचार से प्रभावित होकर अपने जीवन में परिवर्तन लाकर सुखी जीवन जी रहे हैं। मुनि श्री, राष्ट्र, समाज, परिवार, संविधान एवं बेहतर सुखी समाज को दृष्टिगत रखते हुए, सभी विषयों पर अपनी बेबाक राय रखते हैं। 51 वर्ष की उम्र में उन्होंने मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, राजस्थान इत्यादि राज्यों में पद बिहार किया। लाखों लोगों को उनके मानव जीवन को बहुमूल्य बताते हुए, जीवन स्तर को किस तरह बेहतर और सुखी बनाया जा सकता है। इसके लिए वह क्षण-प्रतिक्षण अपने भक्तों को जोड़कर रखते हैं। वर्तमान में मुनि श्री प्रमाण सागर जी मध्य प्रदेश के रतलाम जिले में चातुर्मास कर रहे हैं। जिन्होंने भी प्रमाण सागर महाराज के प्रवचन एक बार सुने हैं। प्रश्नों के माध्यम से टेलीविजन पर बरसों से उनके उत्तर को सुनकर हजारों परिवारों के जीवन में आमूल जामुन परिवर्तन प्रमाण सागर जी महाराज के कारण आया है। उनकी वाणी, त्याग, तपस्या, संवेदनशीलता और समाज के सभी वर्गों को जोड़कर जिस तरह से वह मानव कल्याण एवं भारतीय समाज को बेहतर बनाने में योगदान दे रहे हैं। इसके लिए मानव समाज सदैव इनका ॠणी रहेगा।